Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 270
________________ -१०.३२१] दशमो विभागः 1 २१५ अव्वावाहारिट्ठा एक्करससहस्स एक्करससजुत्ता।अणलामा वण्हिसमा' सूरामा गद्दतोयसारिच्छा ।११०११।७००७ । ९००९। अव्वावाहसरिच्छा चंदामसुरा हवंति सच्चामा। अजुदं तिणि सहस्सा तेरसजुत्ता य संखाए ॥ । ११०११ । १३०१३ । पण्णरस सहस्साणि पण्णरसजुदाणि होंति सेयक्खा। खेमंकराभिहाणा सत्तरससहस्सयाणि सत्तरसं ।१५०१५ । १७०१७।। उणवीससहस्साणि उणवीसजुदाणि होति विसकोट्ठा। इगिवीससहस्साणि इगिवीसजुदाणि कामधरा १९०१९ । २१०२१।। णिम्माणराजणामा तेवीससहस्सयाणि तेवीसं । पणुवीससहस्साणि पणुवीस दिगंतरक्खिणो होति। ।२३०२३ । २५०२५ । सत्तावीससहस्सा सत्तावीसं च अप्परक्खसुरा । उणतीससहस्साणि उणतोसजुदाणि सव्वरक्खाय॥ ।२७०२७ । २९०२९ । एक्कत्तीससहसा एक्कत्तीसं हवंति मरुदेवा। तेत्तीससहस्साणि तेत्तीसजुदाणि वसुणामा ॥५५ ।३१०३१ । ३३०३३ । पंचत्तीससहस्सा पंचत्तीसा हवंति अस्ससुरा । सत्तत्तीस सहस्सा सत्तत्तीसं च विस्ससुरा ॥५६ । ३५०३५ । ३७०३७ । चत्तारि य लक्खाणि सत्तरस सहस्साणि अडसयाणि पि। छन्महियाणि होदि हु सव्वाणं पिंडपरिसंखा ॥५७ । ४१७८०६। अव्याबाध और अरिष्ट देव ग्यारह हजार ग्यारह (११०११) हैं। अनलाभोंकी संख्या वह्नि देवोंके समान (७००७)तथा सूराभोंकी संख्या गर्दतोय देवोंके समान (९००९) हैं ॥४९॥ चन्द्राभ देव अव्याबाध देवोंके समान (११०११) तथा सत्याभ देव संख्यामें तेरह हजार तेरह (१३०१३) हैं ॥ ५० ॥ श्रेय (या श्वेत) नामक देव पन्द्रह हजार पन्द्रह (१५०१५) और क्षेमंकर नामक देव सत्तरह हजार सत्तरह (१७०१७) हैं ।। ५१ ॥ वृषकोष्ठ उन्नीस हजार उन्नीस (१९०१९) और कामधर देव इक्कीस हजार इक्कीस (२१०२१) हैं ॥५२॥ निर्माणराज नामक देव तेईस हजार तेईस (२३०२३) और दिगन्तरक्षी पच्चीस हजार पच्चीस (२५०२५) हैं ॥५३॥ अल्परक्ष देव सत्ताईस हजार सत्ताईस ( २७०२७ ) और सर्वरक्ष देव उनतीस हजार उनतीस (२९०२९) हैं ॥ ५४॥ मरुदेव इकतीस हजार इकतीस (३१०३१) और वसु नामक देव तेतीस हजार तेतीस (३३०३३) हैं ।।५५।। अश्वदेव पैंतीस हजार पैंतीस (३५०३५) और विश्व देव सैंतीस हजार सैंतीस (३७०३७) हैं ।। ५६ ।। सब देवोंकी सम्मिलित संख्या चार लाख सत्तरह हजार आठ सौ छह (४१७८०६ [ ४०७८०६ ] ) हैं ।। ५७ ॥ १ आ प वण्णिसमा । २ आ प व अब्बाहसरिच्छा। ३ ब णिम्माणरारिणामा । ४ ति. प. (८-६३४) सत्त सहस्साणि । ५ आप छव्वहियाणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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