Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 268
________________ -१०.३२१] दशमो विभागः [२१३ संखेज्जजोयणाणि राजोहितो दिसाये पुव्वाए। गंतूणमंतरिए राजी किण्हाय दोहचउरस्सा॥ उत्तरदक्खिणदोहा दक्खिणराजि ठिदा पविसिदूण । पच्छिमदिसाए उत्तरराजि छिविदूण अण्णतनो॥ संखेज्जजोयणाणि राजीदो दक्षिणाए आसाए। गंतूणभंतरिए एक्कं चिय किण्हराजी य॥२९ दोहेण छिदिदस्स य जवखेत्तस्सेक्कभागसारिच्छा। पच्छिमबाहिरराजि छिविणं साठिदा णियमा॥ पुव्वावरआयामा तमकायदिसाए होदि तप्पंती । उत्तरभागम्मि तमो एक्को छिविदूण पुव्ववहिराजि अरुणवरदीवबाहिरजगदीए तह य तमसरीरस्स। विज्चालणहयलादो अन्भंतरराजितिमिरकायाणं। विच्चालायासं तह संखेज्जगुणं हवेदि णियमेण। तम्माणादुण्णेयं अन्भंतरराजि संखगुणजुत्तो॥ अभंतरराजीदो अदिरेगजुदो हवेदि तमकायो । अन्भंतरराजीदो बाहिरराजी वि किंचूणा ॥३४ बाहिरराजीहितो दोणं राजीण जो दु विच्चालो । अदिरित्तो इय अप्पाबहुलत्तं होदि चउसु य दिसासुं॥३५ एदम्मि तम्मि देसे १० विहरते अप्परिद्धिया देवा । दिम्मूढा वच्चन्ते माहप्पेणं महड्डियसुराणं ॥३६ राजीणं विच्चाले ११ संखेज्जा होति बहुविहविमाणा । एदेसु सुरा जादा खादा लोयंतिया णामा॥ संसारवारिरासी जो लोगो तस्स होंति अंतम्मि । जम्हा तम्हा एदे देवा लोयंतिय त्ति गुणणामा ॥ परस्परमें एक दूसरेको छूती हैं ॥२४-२६॥ इन राजियोंसे पूर्व दिशामें संख्यात योजन जाकर अभ्यन्तर भागमें आयतचतुरस्र कृष्णराजी स्थित है जो उत्तर-दक्षिण दीर्घ होकर दक्षिण राजीमें प्रविष्ट होती है। इसी प्रकार उत्तर राजीको छूकर दूसरा अन्धकार (कृष्णराजी) पश्चिम दिशामें भी स्थित है ॥२७-२८।। राजीसे संख्यात योजन दक्षिण दिशामें जाकर अभ्यन्तर भागमें एक ही कृष्णराजी स्थित है ।।२९।। लंबाई रूपमें छेदे गये यवक्षेत्रके एक भागके समान वह राजी नियमसे पश्चिम बाह्य राजीको छूकर स्थित है ॥ ३० ॥ तमस्कायकी दिशामें पूर्व-पश्चिम आयत उसकी पंक्ति (कृष्णराजी) है। एक तम पूर्व बाह्य राजीको छूकर उत्तर भागमें स्थित है ॥ ३१ ।। अरुणवर द्वीपकी वाह्य जगती तथा तमस्कायके मध्यवर्ती आकाशतलसे अभ्यन्तर राजी और तिमिरकायके मध्यवर्ती आकाश नियमसे संख्यातगुणा है। उसके प्रमाणसे अभ्यन्तर राजी संख्यातगुणी जानना चाहिये । अभ्यन्तर राजीसे तमस्काय अधिक है । अभ्यन्तर राजीसे बाह्य राजी भी कुछ कम है । बाह्य राजियोंसे दोनों राजियोंका जो अन्तराल है वह कुछ अधिक है। इस प्रकार यह अल्पबहुत्व चारों ही दिशाओं में है ।।३२-३५।। इस अन्धकारयुक्त प्रदेशमें जो अल्प ऋद्धिवाले देव विहार करते हैं वे दिशाओंको भूलकर महद्धिक देवोंकी महिमासे निकल पाते हैं ।। ३६ ।। इन राजियोंके अन्तरालमें बहुत प्रकारके संख्यात विमान स्थित हैं। इनमें उत्पन्न हुए देव लौकान्तिक नामसे प्रसिद्ध हैं ।। ३७ ।। संसाररूप जो समुद्र है वह लोक कहलाता है । चूंकि ये देव उस लोकके अन्तमें होते हैं- उस लोकका अन्त करके अगले भवमें मुक्ति प्राप्त करनेवाले १ ब संखेज्जोयणाणि । २ ति. प. भंतरए । ३ आ प अतोऽग्रे 'पुत्वावरआयामा तमकायदिसाए होदि तप्पंती' पर्यन्तः पाठस्युटितोऽस्ति । ४ ति. प. तप्पट्ठी। ५ प विच्चार व बिब्बाल । ६ बिब्बालायास। ७ ति. प. तं माणादो तं णेयं । ८ प राजी व (ति. प. राजीव) । ९ आ प बिच्चालो ब विब्बालो। १० ति. प. एदम्मि तमिस्से जे । ११ ब बिब्बाले । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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