Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 265
________________ २१०1 लोकविभागः [१०.२९९द्वे शते नवतिश्चैव शतानि त्रीणि सप्ततिः । तृतीये च मुहूर्ताः स्युमहिन्द्रऽपि च भाषिताः ॥२९९ ।२९० । ३७०। द्वाविंशतिरथाधं च दिनानां ब्रह्मनामनि । चत्वारिंशच्च पञ्चापि अहोरात्राणि लान्तवे ॥३०० ।३।४५। अशीतिदिवसाः शुक्रे शतारे शतमेव तु । आनतादिचतुष्केऽपि संख्येयान्दशतानि वै ॥३०१ ।८० । १०० । व १००। संख्येयान्दसहस्राणि प्रैवेयेष्वन्तरं मतम् । पल्यासंख्येयभागस्तु वनुदिशानुत्तरेऽपि च ॥३०२ ।व १०००।१।५। सप्ताहपक्षमासाश्च मासौ मासचतुष्टयम् । षण्मासं चान्तरं जातौ तदेव च्यवनान्तरम् ॥३०३ ।दि ७ । १५ । मा १।२।४।६। . ऐशानान्ते समाहेन्द्र कापित्थान्ते च योजयेत् । सहस्रारेऽच्युतान्ते च शेषेषु च यथाक्रमम् ॥३०४ पाठान्तरम् । इन्द्राणां विरहः कालो जघन्यः समयो मतः। उत्कृष्टोऽपि च षण्मासं तथवाग्राङ्गनास्वपि ॥३०५ त्रास्त्रिशसमानानां पारिषद्यात्मरक्षिणाम् । उत्कृष्टस्तु चतुर्मासमिन्द्रवल्लोकरक्षिणाम् ॥३०६ तमोऽरुणोदादुद्गत्य वृण्वत्कल्पचतुष्टयम् । कल्पानां विभजेद्देशान्' ब्रह्मलोकेन संगतः ॥३०७ । १७२१ । समय मात्र होता है ।।२९८।। उक्त अन्तर तीसरे कल्पमें दो सौ नब्बे मुहूर्त (९ दि. २० मु.), माहेन्द्र कल्पमें तीन सौ सत्तर मुहूर्त (१२ दि. १० मु.), ब्रह्म कल्पमें साढ़े बाईस (२२३) दिन, लान्तव कल्पमें पैंताल्लीस (४५) दिन, शुक्र कल्पमें अस्सी (८०) दिन, शतार कल्पमें सौ (१००) दिन, आनतादि चार कल्पोंमें संख्यात सौ वर्ष (सं. १०० वर्ष), ग्रैवेयकोंमें संख्यात हजार वर्ष (सं. १००० वर्ष), तथा अनुदिश और अनुत्तरोंमें पल्यके असंख्यातवें भाग ( पल्य असंख्यात) प्रमाण माना गया है ॥ २९९-३०२ ।। मतान्तर ऐशान कल्प तक (सौधर्म-ऐशान), सनत्कुमार और माहेन्द्र, ब्रह्मको आदि लेकर कापिष्ठ तक, शुक्रसे लेकर सहस्रार तक, आनतको लेकर अच्युत कल्प तक, तथा ग्रैवेयक आदि शेष विमानोंमें क्रमसे एक सप्ताह (७ दि.), एक पक्ष ( १५ दि.), एक (१) मास, दो (२) मास, चार (४) मास और छह (६) मास ; इतना अन्तर जन्मका और उतना ही मरणका भी अन्तर जानना चाहिये ॥३०३-३०४॥ इन्द्रोंका विरहकाल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह मास प्रमाण माना गया है। यही विरहकाल उनकी अग्रदेवियोंका भी समझना चाहिये ।। ३०५ ।। त्रायस्त्रिश, सामानिक, पारिषद और आत्मरक्ष देवोंका उत्कृष्ट विरहकाल चार मास प्रमाण है । लोकपाल देवोंका विरहकाल अपने अपने इन्द्रोंके समान समझना चाहिये ॥ ३०६ ॥ ___ अन्धकार अरुण समुद्रके ऊपर उठकर व प्रथम चार कल्पोंको आच्छादित करके इन कल्पोंके देशोंका विभाग करता हुआ ब्रह्म लोकसे सबद्ध हो गया है । वह इसके ऊपर १५ विभजेद्देशां ब विभजद्देशां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|

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