Book Title: Lokprakash
Author(s): Vinayvijay, 
Publisher: Sanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 562
________________ (३१) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३६) (५२५) मोहने तरी गयेलो एवो ते क्षपकमुनि अन्तर्मुहूर्तसुधी त्यांज ( एटले १२ मे गुणस्थाने) विश्राम ले ले (कोइपण प्रकृति क्षय करतो नथी) ||३५|| (विशेषाइसक) भाष्य (गा० १३३२) मधुं छे के - " ( लोभाणु मात्रनो पण सर्वथा ) क्षय थये क्षपक निर्बं ( थयेला मुनि) मोहसमुद्र तरोने अन्तर्मुहूर्त विश्राम पामे, जेम ( बाहुवडे) समुद्र तरीने थागजलमा ( ढींचण प्रमाण जलमां आवेलो फोड़क तारक) पुरुप विश्राम ले के तेय " ॥ ३६ ॥ ये बारमा क्षीणकषाय नामना गुणस्थाने गयेलो जीव ते गुणस्थानना उपान्त्य समये निद्रा अने मचलानो क्षय करे ॥ ३७ ॥ अने अन्त्यसमये ५ ज्ञानावरण-४ दर्शनावरण- अने ५ अन्तरायनो क्षय करो जिन सर्वज्ञ थाय ॥ ३८ ॥ ए प्रमाणे जब ममयोन आकिमि बद्ध सूक्ष्म किट्टीमा दलीयाने प्रतिसमय स्थितिघातादिवडे त्यांसुधो खपाये के यावत् सृम्मसंप राय काळमा संख्याता भागां जाय, एक भाग अवशेष रहे. न्यारबाद से संख्यातमा भागमां संचलन लोभने सर्वापवर्तनाये अपवर्तन करी सूक्ष्मसंपरावना कालनी सम्मान बनाये, में सूक्ष्म संघरायनी काल हजी पण अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हे त्यारथी मांडीने लोभमा स्थितिघात विगेरे निवृत्त थया, खाकीना कर्मना तो प्रबर्तेज छे हवे ते लोभी अप वर्तन करेली स्थितिने उदय अने उदीरणाबडे वेदतो यावत् समयाधिक आ पलिकामात्र शेष रहे स्यां सुधी जाय, त्यारबाद अनन्तरसमये लोभनी उदीरणा अटकी पटले केवळ उदयवदेश लोभनो स्थितिने वेदे यावत् चरम समय आवे ते झेल्लासमये पांच ज्ञानावरणीय-५, चारवर्शनावरणीय-४, पांच अन्तराय-५, यश कीर्ति- १. उच्चैर्गोत्र- १ र सो प्रकृतिओना बन्धनां व्यवच्छेद तथा मोettesर्मना उदय गने सप्तानां पण व्यवच्छेद थाय, अहीं लोभनो संपूर्ण पणे क्षय कर्ये ते अनन्तरसमये क्षीणकषाय थाय छे हवे ते क्षीणकषायीने मोहनीवर्जने यकीन कर्मोना स्थितिघात विगेरे पूर्वनी माफक प्रछे, यात क्षीणकषायामा संख्याता भागो जता सुधी, एक संख्यातमो भाग बाकी रहे छे, ते सख्यातमा भागमां पांच ज्ञानावरणीय चार दर्शनावरणीय पांच अन्तराय अने थे निद्रा प सोव्यप्रकृतिओनु स्थितिसत्कर्म सर्वापत्रसेनाये अपवर्तन करी क्षीण कषायाद्वामी समानस्थिति बनाये कर्मत्वनी अपेक्षाये मुल्य छतां मात्र बेनिद्रालु' एक समयन्यून स्थितिसत्कर्म जाणवु पटलेके श्री मोहना उपान्त्यलमये निद्रा ठिकनुं दलीं दर्शन चतुष्कयां स्तिनुकमको संक्रमाषशे अने संक्रम पामते दली करक स्वरूप त्याग करेछे अंथी नित्य अने प्रचकात् रूप पोताना स्प रुपनी अपेक्षाये समयन्यून क्षीणकषायना काळनी सरखी स्थिति कही असे संक्रमना अन्त्यसमयमां चौद प्रकृतिस्वरूप रहोगे तेनी साथै निशाकिनी क्षय करशे माहे पर प्रकृतिरूप कवनी अपेक्षा तुल्यता कही छे, कम्पयडीमां को क

Loading...

Page Navigation
1 ... 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629