Book Title: Lokprakash
Author(s): Vinayvijay,
Publisher: Sanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
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(५६४) । गुणस्थानकबारे अल्पबहुत्व-भागवार-गुणश्रेणिविचारः ॥ (द्वार असंख्येयगुण वारे होय छे, ते करता तिर्यग्गतिवति मिथ्यादृष्टिजीवी अनन्तगुण होय छे. आ प्रमाणे अल्पयाहुत्वद्वार जाणवू अल्पवाहत्वद्वारविचारान्तर्गत भागद्वारविचार होवाथी प्रथम अवशिष्ट राखेल भागद्वारविचार नीचे प्रमाणे, मिथ्याष्टिजीवोने अनन्तमे भागे अविरतसम्यग्दृष्टिजीवो, अविरतसम्यग्दृष्टिने असंख्यातमे भागे मिश्रष्टिजीवो, मिश्रष्टिने असंख्यातमे भागे सास्वादनसम्पष्ट्रिजीवी, मास्वादनसम्यग्दृष्टिने असंख्यातमे भागे देशविरतजीवो, देशविग्लने असंख्यातसे भागे पलापरतणीको, मलयाने संख्यातमे भागे अप्रमत्तसंपतजीवो, अप्रमत्तसंयतने संख्यातमे भागे सयोगिकेवलिभगतो, सयोगिकेवलिने संख्यातमे भागे क्षपकणिवाळा तथा अयोगिकेवलिजीवो, क्षपकने संख्यातमे भागे उपशामक नथा उपशान्तमोह गुणस्थानवाला जीदो होय छे, आ प्रमाणे चौदगुणस्थानोमांसत्पदप्ररूपणतादि नव अनुयोगदार विचार जाणवो.
___प्रतिसमय असंख्यगुणद्धिनिर्जराना हेतुभून अध्यवसायविशुद्धि विशेषताये थती गुणश्रेणिओ अगीयार छ भने ते गुणस्थान विचारनी सहधर्मवाली होवाथी गुणस्थानद्वारनी साथे ज प्रसङ्ग प्राप्त है, परन्तु विस्तार भययी ते दर्शावी नथी मात्र तेना जिज्ञासुओ माटे नाममात्र दावीये छीये.
(१) पहेली सम्यक्त्वोत्पादगुणश्रेणि-मिथ्याष्ट्रिजीवो जे कर्मनिर्जरा करे ले लेना करता धर्मपृच्छा विचारवान पृच्छाभिलाषी छतो साधु पांसे जनोप्रश्न करतो-सम्यक्त्व अङ्गीकारनी इच्छावाळो,अङ्गीकार करनार-अङ्गीकार करेलो ए सर्पने उत्तरोत्तर असंख्यगुण निर्जरा जाणवी
(२) पीजी देशविरतगुणश्रेणि-उपर प्रमाणेज सम्यक्त्व पामेला जीव करता देशविरति पामवानी इच्छाबाळाने-पामताने अने पामेलाने अनुक्रमे असंख्यगुणनिर्जरा जाणवी. आ प्रमाणे सर्वगुणश्रेणिमा जाणवू.
(३) श्रीजी सर्वधिरतगुणश्रेणि-(४)चौथी अनन्तानुबन्धिविसंयोजक. (५) पांचमी दर्शनमोहक्षपका (६) छठी उपशामका (७) सातमी उपशान्त० (८) आठमीक्षपक०-(५) नरमी क्षीणमोह०-(१०) दशमी सयोगिकेवलि०-११) अगीयारमी अयोगिकेलिगुणणि, आ सर्वमां उत्तरोत्तर असंख्यगुण निर्जरा जाणवी, कर्मनिजग माटे संयमस्थान आणि उत्तरोत्तर असंख्येयगुण प्रवधमान होय अने काल अयोगिकलिथी लइने विपरीत रीतिये संख्यातगुणद्धिये जाणवो. अर्थात जेटले काले जेटलं की अयोगिकवलि खपाये सेटटु ज कम सयोगिकेलि संग्ख्यातगुणदीर्घकाले खपाथे, आ प्रमाणे पश्वानुपूर्वीये पृच्छामिलापी मुवी जाणवू. विशेष विचार शतकवृत्ति आदियी जाणवो.

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