Book Title: Kusumavali
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Rushabhdevji Chhagniramji Jain Shwetambar Samstha

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Page 209
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ यस्य येनाभिसम्बन्धो दूरस्थस्यापि तेन सः॥१२४॥ येन विना यन्न भवति तत्तस्यानिमित्तस्यापि निमिसम् ॥१२५॥ नामग्रहणे प्रायेणोपसर्गस्य न ग्रहणम् ॥१२६।। सामान्यातिदेशे विशेषस्य नातिदेशः॥१२७॥ सर्वत्रापि विशेषेण सामान्य बाध्यते न तु सामान्येन विशेषः ॥१२८॥ डिन्वेन कित्त्वं बाध्यते ॥१२९।। परादन्तरङ्ग बलीयः॥१३०॥ प्रत्ययलोपेऽपि प्रत्ययलक्षणं कार्य विज्ञायते ॥१३१॥ विधिनियमयोर्विधिरेव ज्यायान् ॥१३२॥ अनन्तरस्यैव विधिनिषधो वा ॥१३३।। पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तिः ॥१३४॥ न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या ॥१३५॥ किबथं प्रकृतिरेवाह ॥१३६॥ द्वन्द्वात्परः प्रत्येकमभिसम्बध्यते ॥१३७॥ विचित्राः शब्दशक्तयः ॥१३८॥ किं हि वचनान्न भवति ॥१३९॥ न्यायाः स्थविरयष्टिप्रायाः॥१४॥ For Private and Personal Use Only

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