Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ अतः उसका स्वरूप एवं स्वभाव समझना ही तत्त्व निर्णय है; इसलिए अपने जीवतत्त्व का स्वरूप अपनत्व करने के लिए समझकर, बाकी रहे तत्त्वों का स्वरूप भी समझना है, वह भी इसलिए कि वे जीव नहीं हैं, वे मैं नहीं हूँ और न वे मेरे हैं। जीव तो ज्ञायक-अकर्तास्वभावी ऐसा मैं हूँ? ये नव तत्त्व मेरे आत्मा से संबंधित ही हैं; इसलिए आत्मा के हित की मुख्यता से इनको समझने के लिए जिनवाणी में तत्त्वों को 'हेय - ज्ञेय उपादेय' तीन समूहों में बांटा है। जैसे जीव और अजीव तो दोनों ज्ञेयतत्त्व हैं। आस्रव और बन्ध हेयतत्त्व हैं, पुण्य और पाप भी इन्हीं में गर्भित हैं; ये सब आत्मा की पर्याय होते हुए भी अभाव करने योग्य होने से हेयतत्त्व हैं। तथा संवर और निर्जरा भी दोनों आत्मा की पर्यायें हैं; लेकिन वे प्रगट करने योग्य होने से उपादेय हैं। मोक्ष तत्त्व भी आत्मा की पर्याय है; लेकिन प्रगट करने के लिए परम उपादेय हैं; किन्तु सभी पर्यायें अनित्य स्वभावी होने से अहम् करने योग्य अर्थात् अपना स्वरूप मानने योग्य नहीं हैं । ८ अहम् करने योग्य अर्थात् अपना स्वरूप मानने योग्य तो पर्यायों से भी भिन्न, एकमात्र नित्य स्वभावी अकर्ता-ज्ञायक ध्रुव आत्मतत्त्व ही है । मेरा ध्येय सिद्ध दशा प्रगट करना है। सिद्धभगवान ने भी ज्ञायक अकर्ता स्वभावी आत्मतत्त्व का आश्रय अर्थात् उसमें अपनापन किया, उससे उनकी पर्याय भी पवित्र हो गई; इसलिए मेरा जीव तत्त्व तो ज्ञेय भी है और श्रद्धेय भी है। उसका आश्रय करने से मेरा आत्मा भी पवित्रता को प्राप्त हो सकेगा। अजीव तत्त्व न तो हेय हैं और न उपादेय; वे तो मात्र ज्ञेय हैं। उनका अस्तित्व है और मेरे ज्ञान में ज्ञात होते हैं; इसलिए वे मात्र पररूप जान लेने योग्य हैं। उनसे किंचित् भी किसी प्रकार का सम्बन्ध बनाया तो वे आस्रव-बंध के उत्पादक बन जावेंगे; इसलिए क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ निरपेक्ष रहकर उनको जान लेने योग्य हैं और ज्ञायक में अपनत्वपूर्वक लीन होने से संवर-निर्जरा उत्पन्न होती है। ९ इसप्रकार सातों अथवा नवतत्त्वों में अकर्ता ज्ञायकस्वभावी आत्मा ही “मैं” हूँ; ऐसा समझकर यही निर्णय करना है । तत्त्वनिर्णयरूप अभ्यास का यही अभिप्राय है । समयसार गाथा १५५ की टीका में भी इस विषय का समर्थन है:टीका: “मोक्ष का कारण वास्तव में सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है, उसमें सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थों के श्रद्धानस्वभावरूप ज्ञान का (आत्मा का) होना परिणमन करना है, जीवादि पदार्थों के ज्ञान स्वभावरूप ज्ञान ( आत्मा ) का होना- परिणमन करना ज्ञान है, रागादि के त्यागस्वभावरूप ज्ञान का होना परिणमन करना सो चारित्र है; अतः इसप्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र तीनों एक ज्ञान (आत्मा) का ही भवन - परिणमन है; इसलिए ज्ञान (ज्ञायक) ही परमार्थ ( वास्तविक ) मोक्ष का कारण है । " इस प्रकार सभी तत्त्वों में सारभूत तो अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावी आत्मा को 'अहं रूप' जानना, मानना और पहिचानना है । अन्य सबका उसमें अभाव है; इसलिए वे सब पर हैं। ऐसी श्रद्धा ही यथार्थ तत्त्व-निर्णय है, यही तत्त्वनिर्णय का अभिप्राय है और यह निर्णय करना ही प्रथम पुरुषार्थ है। ज्ञान की जानने की प्रक्रिया चेतना अर्थात् जानना आत्मा का लक्षण है। लक्षण वही है, जो अपने विषय में ही मिले और उसका उसमें कभी अभाव नहीं हो ।Page Navigation
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