Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 39
________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ योग्यतानुसार क्रमबद्ध हो रहा है। मैं तो उसका भी कर्ता नहीं हूँ - ऐसा सभी प्रकार के परिणमनों से निरपेक्ष अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड त्रिकाल ज्ञानानन्दस्वभावी मैं हूँ । ७२ इसप्रकार ज्ञानी को अपना अस्तित्व ज्ञानानन्द स्वभावी मानने से अहंपना तो ज्ञायक चिन्मात्रभाव में हो जाता है; इसलिए स्वपना तो निरन्तर उसी में बना रहता है; फिर भी स्थिरता की कमी के कारण उपयोग पर में जाता है और योग्यतानुसार उनमें घुला -मिला सा भी हो जाता है; किन्तु परत्वबुद्धिपूर्वक, फिर भी ज्ञानी जाग्रत रहता है कि उनमें एकत्व नहीं हो जावे इसलिए उपर्युक्त प्रकार के वस्तुस्वरूप को मान्यता में जाग्रत रखता है । आत्मद्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्य तो अपने-अपने चतुष्टय में अपनीअपनी योग्यतानुसार क्रमबद्ध परिणम रहे हैंव परिणमते भी रहेंगे; उनका ज्ञान पर्याय में हो रहा है वह भी उनसे निरपेक्ष रहते हुए मेरी ज्ञानपर्याय की योग्यता का प्रदर्शन है और वह भी क्रमबद्धपर्याय का उत्पाद है; इसप्रकार परद्रव्यों के परिणमनों से तो मेरे जानने का भी संबंध नहीं रहता; वे तो मेरे लिए शून्यवत् हैं । इसीप्रकार मेरी आत्मा के विकारी निर्विकारी परिणमन भी उनकी पर्यायगत योग्यतानुसार क्रमबद्ध हो रहे हैं; उनका ज्ञान भी उनसे निरपेक्ष रहते हुए ज्ञानपर्याय की योग्यता का प्रदर्शन है, वह भी उसके क्रमबद्ध होनेवाले परिणमन का उत्पाद है मेरा तो विकारी - निर्विकारी पर्यायों को जानने का भी उत्साह नहीं रहता, वे निमित्त हैं सो बने रहेंगे, उनके आकार परिणत मेरी ज्ञानपर्याय भी उस पर्याय का क्रमबद्ध परिणमन है; मैं तो उसका भी कर्ता नहीं हूँ । इसप्रकार की श्रद्धा जाग्रत रहने से क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ७३ ज्ञानी का उनमें एकत्व एवं कर्तृत्वबुद्धि आदि नहीं होती और अपने ज्ञायक में अपनत्व अक्षुण्ण बना रहता है । परज्ञेय अपनत्वबुद्धिपूर्वक उसको आकर्षित नहीं कर सकते । उक्त चिन्तन द्वारा ज्ञानी को कोई आश्रयभूत नहीं भासता और एकमात्र अमूर्तिक आत्मा ही शरणभूत लगने लगता है। फलत: अपनत्व का आकर्षण अपने ज्ञायक में ही बना रहता है। यही है ज्ञायक में अपनत्वपूर्वक वर्तनेवाली क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा की उपलब्धि और यही है उसकी श्रद्धा से होनेवाला यथार्थ पुरुषार्थ; यही है पुरुषार्थ भवभ्रमण के अन्त करने का । क्रमबद्ध की श्रद्धा से ज्ञायक से एकत्व प्रश्न- क्रमबद्ध परिणमन की श्रद्धा से ज्ञायक में अपनत्व कैसे हो जावेगा ? उत्तर - अवश्य हो जायेगा; अपितु ज्ञायक में अपनत्व होने पर ही क्रमबद्ध परिणमन की श्रद्धा प्रगट होती है, ज्ञायक में अपनत्व होना, श्रद्धा अपेक्षा कथन है और क्रमबद्ध परिणमन का ज्ञान, ज्ञान अपेक्षा कथन है। वास्तव में दोनों साथ-साथ उत्पन्न होते हैं। ज्ञानी का ज्ञान ज्ञायक को अपनत्वपूर्वक जानता है और ज्ञान में जो भी ज्ञेय ज्ञात होते हैं वे सब, ज्ञान को परत्वबुद्धिपूर्वक क्रमबद्ध परिणमते हुए भासित होने से, ज्ञान में भी गौण वर्तते रहते हैं। तथा ज्ञात होते रहने पर भी उनमें कर्तृत्वबुद्धि-भोक्तृत्वबुद्धि तथा एकत्व - ममत्व नहीं होता, स्वामित्व नहीं होता। अज्ञानी को इसके विपरीत ज्ञेयों के क्रमबद्ध परिणमन की श्रद्धा नहीं होकर स्वामित्वबुद्धि होने से, वह उनके परिणमनों का भी स्वामी बनकर कर्ता-भोक्ता बन जाता है। आत्मा की अनन्त शक्तियों में अकार्यकारणत्व नाम की शक्ति हैं । त्याग-उपादानशून्यत्वशक्ति तथा अकर्तृत्वशक्ति एवं

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