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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
वस्तु जिसमें कार्य नहीं हुआ है; किन्तु निमित्त है, उसका भी अपनीअपनी पाँच समवाय युक्त पर्यायगत योग्यता से क्रमबद्ध परिणमते रहने का स्वभाव है। तदनुसार ही कार्य की संपन्नता भी हो रही है। इसप्रकार प्रत्येक कार्य की संपन्नता करनेवाला कोई अन्य कर्ता नहीं हो सकता । वस्तु की पाँच समवाययुक्त स्वयं की योग्यता (सामर्थ्य) ही कार्य की नियामक होती है।
प्रश्न :- ऐसी श्रद्धा से आत्मा को क्या लाभ होगा ?
उत्तर :- आत्मा को अनाकुल शांति (सुख) की प्राप्ति होगी । आत्मा का वास्तविक अस्तित्व तो अमूर्तिक पुरुषाकार अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड, ज्ञानानन्द स्वभावी अकर्ता अभोक्ता एवं नित्य- एक और ध्रुव चैतन्यमूर्ति है । उसका परिणमन भी ज्ञानरूप ही होता है। ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक स्वभावी होने से, स्व एवं पर सबको जानता है।
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उक्त स्व-पर को जानने की क्रिया भी मेरी ज्ञानपर्याय का ही परिणमन है । मेरी ज्ञान पर्याय ही ज्ञेय के आकार होकर परिणमती है, उसी ज्ञानपर्याय को मेरा ज्ञान जानता है, उसी को ज्ञेयों का जानना कह दिया जाता है, ज्ञेय को जानने के लिए न तो ज्ञान को ज्ञेय के पास जाना पड़ता है और न ज्ञेय को ज्ञान के पास आना पड़ता है; अपितु ज्ञेय के सन्मुख रहते हुए स्व-पर का ज्ञान कर लेता है - ऐसी ज्ञान के सामर्थ्य की विचक्षणता है, यह तो ज्ञान के जानने का स्वभाव है, ज्ञानी अज्ञानी, निगोद से सिद्ध तक के सब जीवों के जानने की प्रक्रिया समानरूप से होती है, दूसरी ओर जानने के विषय छहों द्रव्य उनके गुण-पर्यायों सहित होते हैं; क्योंकि प्रमेयत्व गुण होने से मेरे अन्य द्रव्य के भी समस्त गुण एवं उनकी पर्यायें मेरे ज्ञान में ज्ञात होती हैं। इसप्रकार आत्मा स्व-पर का ज्ञायक है।
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
उक्त स्व पर प्रकाशक स्वभाव की पूर्ण प्रगटता अरहंत-सिद्ध भगवान को प्रगट है; पर्याय की वह प्रगटता ज्ञान की सामर्थ्य को सिद्ध करनी है, जो सामर्थ्य पर्याय में प्रगट हुई है वह उनके द्रव्य में भी तब ही प्रगट होती है। इससे फलित होता है कि मेरे आत्मद्रव्य की भी सिद्ध के समान लोकालोक को जानने की है और वह जानना भी सम्भव हो सकता है जबकि लोकालोक का ज्ञान मेरी ज्ञानपर्याय में ही हो; अतः मेरी ज्ञान की ही इतनी विशाल सामर्थ्य है कि वह तो लोकालोक के आकार एवं अपने आत्मा में होनेवाले कार्य कलापों के आकार समस्त ज्ञेयों से निरपेक्ष रहते हुए परिणमती है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान में भी मेरी ज्ञानपर्याय अपनी प्रगट हुई योग्यता के अनुसार ज्ञेयों से निरपेक्ष रहते हुए परिणमती है अर्थात् जानती है।
प्रश्न :- इस जाननक्रिया के जानने से आत्मा सुखी कैसे हो जावेगा ?
उत्तर :- स्पष्ट है कि भगवान सिद्ध अनाकुल आनन्द को भोगते हुए अनन्तकाल सुखी रहते हैं। और वे सर्व और वीतरागी हैं; इसलिए पूर्ण वीतरागी रहते हुए सर्व (ज्ञेयमात्र) को जानने वाला ही परम सुखी हो सकता है। रागी एवं अल्पज्ञानी नहीं हो सकता है। स्व अर्थात् ज्ञायक चैतन्यमूर्ति को तन्मयतापूर्वक जानने से वीतरागता की उत्पत्ति होती है एवं पर ज्ञेय मात्र का ज्ञान अतन्मयता अर्थात् तन्मयता रहित जानने से ज्ञान विशालता को प्राप्त होता हुआ सर्वज्ञता को प्राप्त हो जाता है एवं ज्ञेयमात्र में मोह रागादि उत्पन्न नहीं होते फलतः आत्मा वीतरागी रहता है। ज्ञान के साथ श्रद्धा, चारित्र एवं सुख आदि अनन्तगुणा भी स्व में अपनत्व के साथ तन्मय होकर वर्तने लगता है फलतः आत्मा अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द का भोक्ता