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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
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हो जाता है। इसप्रकार भगवान परमसुखी हैं। प्रश्न :- इसके जानने से हम सुखी कैसे हो जावेंगे ?
उत्तर :- जब हमारे साध्य जो सिद्ध भगवान वे परमसुखी हैं, तो साधना भी उसी जाति की होती है और उसका फल भी साध्य की सिद्धि होती है; तथा साधक को उसी जाति की प्रगटता का प्रारम्भ हो जाता है। यही कसौटी है, वास्तविक साधना की अर्थात् परीक्षा का मापदंड है इसके जिस साधना के फल में आकुलता की अर्थात् मोह - रागादि भावकर्मों की उत्पत्ति होती है, वह साधना मार्ग की पुष्टि करनेवाली होती है ।
साधना का प्रारम्भ होता है सम्यग्दर्शन से अर्थात् सम्यक्त्वी जीव साधक है, उसको ज्ञायक चैतन्यमूर्ति में अपनत्व होकर स्वरूपाचरण चारित्र एवं सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है; अतः उसका ज्ञान सम्यक् होकर वस्तु का जैसा स्वरूप है, उसको वैसा ही जानता है एवं स्व में अपनत्व होने से स्व को तो तन्मयतापूर्वक, सिद्ध के समान जानत है; किन्तु चारित्र की प्रगटता स्वरूपाचरण मात्र होने
तथा पूर्ण स्थिरता की कमी के कारण, साधक का ज्ञान परज्ञेयों की ओर भी आकर्षित हो जाता है; किन्तु परत्वबुद्धिपूर्वक; फलतः अज्ञानी के समान तन्मय नहीं होता, स्व में स्वपना वर्तता रहता है। फिर भी ज्ञान परज्ञेयों में उलझ जाता है। परज्ञेयों के करने भोगने के विकल्प भी होते हैं, उनमें एकमेक होना या जैसा दिखते हुए भी उनमें परत्वबुद्धिपूर्वक तन्मय होता है। साधक को वस्तु स्वरूप, ज्ञानश्रद्धान में वर्तते हुए उसकी श्रद्धा होती है कि प्रत्येक वस्तु के प्रतिसमय के परिणमन क्रमबद्ध व्यवस्थित होते हैं, तदनुसार होते हुए ही ज्ञान में ज्ञात हो रहे हैं; प्रत्येक परिणमन के पाँच समवाय की व्यवस्थित अपने क्रम से परिणम रहे हैं। मेरे आत्मा में होनेवाले प्रत्येक परिणमन
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भी निश्चित स्वकाल में अपनी-अपनी पर्यायगत योग्यता आदि के अनुसार अपने स्वकाल में परिणमते हुए निश्चित निमित्त की उपस्थिति में क्रमबद्ध हो रहे हैं; उन किसी परिणमन में मुझ ज्ञायक का किसीप्रकार का भी किंचित् भी योगदान नहीं है; अपितु उक्त परिणमनों को जाननेवाली मेरी ज्ञानपर्याय भी प्रतिसमय पाँच समवाययुक्त निश्चित स्वक्रम में परिणम रही है। मैं उन संबंधी ज्ञेयाकार तो ज्ञानपर्याय में पर्यायगत योग्यतानुसार अपने स्वकाल में पर्यायगत पुरुषार्थ से क्रमबद्ध उत्पन्न हुए हैं और तदनुकूल ज्ञेयों का होना, वह उन ज्ञेयरूप परद्रव्यों का क्रमबद्ध परिणमन है। फलत: मैं तो उनका भी कर्ता तो नहीं ज्ञाता भी कथनमात्र से है; क्योंकि ज्ञाता तो मैं स्व अर्थात् अपने ज्ञायक स्वतत्त्व का हूँ - ऐसी श्रद्धा-ज्ञान वर्तते, रहने के कारण साधक उनमें घुला-मिला दिखते होने पर भी, उनमें तन्मय नहीं हो जाता; अतन्मय जैसा ही बना रहता है, फलस्वरूप साधक भी आंशिक वीतरागतापूर्वक ज्ञायक बना रहता है और आंशिक अनाकुल शांति का निरन्तर वेदन करता रहता है। इसप्रकार साधक भी जिनेन्द्र का लघुनंदन बन जाता है। अरहंत भगवान वीतरागतापूर्वक सर्वज्ञेयों को जानते हैं तो साधक स्वरूपाचरणचारित्र अर्थात् स्व में अपनत्व के आचरणपूर्वक अल्पज्ञेयों को जानता है फलत: वे पूर्ण अतीन्द्रिय अनाकुल आनन्द को अनन्तकाल तक भोगते रहते हैं; किन्तु साधक उसी शांति के अतीन्द्रिय अनाकुल आनन्द के अंश का साधक काल तक अनवरत भोगते रहते हैं। इसप्रकार स्वज्ञायक ध्रुवतत्त्व में अपनत्वपूर्वक ज्ञात होनेवाले सभी परिणमन पाँच समवाययुक्त क्रमबद्ध होते रहते हैं, ऐसे वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा ही सम्यक्त्व को बनाये रखने का एवं परज्ञेयमात्र में अकर्तृत्व की श्रद्धा दृढ़ करने के साथ ही स्व में लीनता - रमणता बढ़ाने का यथार्थ पुरुषार्थ है तथा आत्मा की ज्ञानानन्दी दशा प्रगट करने का वास्तविक उपाय है।