________________
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
इसके विपरीत अज्ञानी का परज्ञेयों में अपनत्व होने से, वह उन ज्ञेयों को स्वामी मानकर उनको अपने अनुकूल परिणमने की चेष्टा करता है; किन्तु वे तो स्वतंत्र द्रव्य हैं, अपने स्वकाल में अपनी योग्यता के अनुसार स्वतंत्रतापूर्वक परिणमन करते हैं; इसलिए अज्ञानी के प्रयास सफल नहीं होने से, यह निरन्तर आकुलित रहता हुआ दु:खी होता रहता है, ऐसी अनाकुलता की पराकाष्ठा निगोद दशा को प्राप्तकर अनंतकाल तक भ्रमण करता रहता है। इसप्रकार विपरीत मान्यता का फल संसार परिभ्रमण होता है और यथार्थ अर्थात् सम्यक् मान्यता का फल संसार भ्रमण का अंत होकर मुक्त दशा की प्राप्ति होती है।
सारांश सारांश इतना ही है कि मेरा आत्मा तो अरहंत की आत्मा के समान सर्वज्ञ और वीतराग स्वभावी है और उनके समान ही स्वपर का ज्ञायक भी है। जानना अपने स्वक्षेत्र में ही स्वसन्मुखतापूर्वक होता है, पर के सन्मुख होकर पर का भी ज्ञान नहीं होता; लेकिन अरहंत का अपनत्व स्व में होने से ज्ञान-चारित्र भी स्व में एकत्व करते हैं, फलत: स्व का जानना तो तन्मयतापूर्वक होने से परम अनाकुल आनन्द का सर्जन करता है; लेकिन मेरे ज्ञान ने निर्णय किया है कि ध्रुवतत्त्व तो मेरा अरहंत भगवान के समान ही है, दोनों में किंचित् भी अन्तर नहीं है और मैं तो ध्रुव ही हूँ; अत: जो अरहंत भगवान करते हैं, वही मैं भी करता हूँ। वे स्व में अपनत्वपूर्वक स्व को तो तन्मयतापूर्वक जानते हैं एवं स्व में ही पूर्ण लीन रहते हुए पर का ज्ञान उनको अतन्मयता एवं पूर्ण लीनता पूर्वक होता है फलत: उनको मोहरागादि की उत्पत्ति किंचित् भी नहीं होती और परम आनन्द का सर्जन होता है।
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
मैं भी स्व को तो अपनत्वपूर्वक तन्मयता सहित ही जानता हूँ; किन्तु स्व में स्वरूपाचरणचारित्र अनुसार ही होती है; इसलिए मेरा ज्ञानमात्र स्वरूप में ही संवृत्त नहीं रह पाता और पर की ओर भी आसक्त हो जाता है; किन्तु परत्वपूर्वक, अपनत्वपूर्वक नहीं; किन्तु मेरी ऐसी नि:शंक श्रद्धा है कि परज्ञेय जितने भी हैं, वे मेरे से भिन्न रहते हुए, प्रतिसमय अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने स्वकाल में अपनी-अपनी योग्यता से पाँच समवाय पूर्वक क्रमबद्ध परिणम रहे हैं, सबके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव उनमें नियत हैं, वे सब अपनेअपने समय के सत् है, मेरी परिणमन भी सम्मिलित हैं, मेरी जो स्वाभाविक ज्ञानपर्याय है। वह भी नियमित क्रम पूर्वक परिणम रही है, उस ज्ञानपर्याय में निमित्त होने की जिस पदार्थ की योग्यता है वह भी क्रमबद्ध निश्चित है; इसलिए इष्ट-अनिष्ट मानने अथवा रागादि का कोई कारण नहीं रहता; अत: परज्ञेयों का ज्ञान भी केवली के अनुरूप अतन्मय समान वर्तता है; एकत्व नहीं होता, फलतः आंशिक अनाकुलशांति भी वर्तती है और अन्तर से विश्वास होता है कि अब भव का अन्त आ गया है।