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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ क्रम से परिणमन करते रहना आत्मवस्तु का मूलभूत स्वभाव है। ज्ञानी की निर्मल पर्यायों के परिणमन की क्रमबद्धता का समर्थन समयसार गाथा ३०८-३०९ की टीका में है -
“जीव क्रमबद्ध (क्रमनियमित) ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं; इसीप्रकार अजीव भी क्रमबद्ध अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं।"
इसके अतिरिक्त समयसार परिशिष्ट के ४७ शक्तियों के प्रकरण में आचार्यश्री ने क्रमबद्धता को सिद्ध करनेवाली आत्मा में निम्न सात शक्तियाँ बताई हैं, उससे भी सिद्ध है कि आत्मा के परिणाम अनादि-अनन्त अनवरत रूप से निश्चित क्रम से होते ही रहते हैं, कभी व्यवधान नहीं पड़ सकता । वे शक्तियाँ निम्न हैं -
३३ वीं भावशक्ति - विद्यमान अवस्था युक्ततारूप भावशक्ति अर्थात् ज्ञानी को प्रतिसमय निर्मल पर्याय विद्यमान रहती ही रहती है।
३४ वीं अभावशक्ति - शून्य अवस्था युक्ततारूप अभावशक्ति अर्थात् तदनुकूल विकारी पर्याय के अभाव रहनेरूप शक्ति।
३५ भावाभावशक्ति - प्रवर्तमान पर्याय के व्ययरूप, भावअभावशक्ति।
३६ अभावभावशक्ति - अप्रवर्तमान (निर्मल) पर्याय के उदयरूप अर्थात् उत्पाद होना, अभावभावशक्ति ।
३७ भावभावशक्ति - प्रवर्तमान पर्याय के भवनरूप अर्थात् जिस गुण की पर्याय है उसका उस रूप ही रहना।
३८ अभावअभावशक्ति - अप्रवर्तमान (विकारी) पर्याय के अभवनरूप अर्थात् नहीं होनेरूप अभावअभावशक्ति ।
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
३९ भावशक्ति - कारकों के अनुसार जो क्रिया उससे रहित उससे रहित भवनमात्रमयी भावशक्ति ।
इसके अतिरिक्त आत्मा के परिणमनों का निर्मल भावपूर्वक निश्चित स्वक्रम से होनेवाले परिणमन को सिद्ध करनेवाली आगे की निर्मल षट्कारक रूप परिणमनेवाली शक्तियाँ भी हैं।
उक्त सभी प्रमाणों से भी स्पष्टत: सिद्ध होता है कि ज्ञानी अपने सभी परिणमन निश्चितभाव पूर्वक निश्चित स्वक्रम से परिणमते हैं - ऐसी सामर्थ्य श्रद्धा वर्तने से ज्ञानी सदैव अकर्तृत्व की श्रद्धापूर्वक निर्भार रहता है।
इसप्रकार ज्ञानी के विश्व के प्रत्येक द्रव्य के पाँच समवायपूर्वक परिणमनों की स्वतंत्रता एवं क्रमबद्धता की श्रद्धा होने से, उनके परिणमन ज्ञान में ज्ञात होने पर भी एकत्व-ममत्वादि नहीं होता एवं अपनी आत्मा में होनेवाले विकारी भावों के पाँच समवायपूर्वक होनेवाले परिणमनों के प्रति भी कर्तृत्वबुद्धि नहीं होती; उसकी श्रद्धा होती है कि उन विकारों की कर्ता उनकी पर्यायगत योग्यता है। उनका ज्ञान भी मेरी ज्ञानपर्याय की योग्यता का प्रदर्शन है। मैं तो उसका भी कर्ता नहीं हूँ। ज्ञानानन्दस्वभावी ऐसा मैं तो ध्रुव त्रिकाल चैतन्यमूर्ति हूँ। परद्रव्यों के परिणमन तो उनके स्वचतुष्टय में क्रमबद्ध परिणम रहे हैं, उनके ज्ञानरूप परिणमन भी उनसे निरपेक्ष मेरी ज्ञानपर्याय की योग्यतानुसार होनेवाला क्रमबद्धपरिणमन है; उसीप्रकार मेरे आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होनेवाले विकारी-निर्विकारी परिणमन भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार क्रमबद्ध हो रहे हैं; तत्संबंधी ज्ञान, जो मेरी ज्ञानपर्याय में हो रहा है, वह भी उस ज्ञान पर्याय की