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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ अभोक्तृत्वशक्ति भी है। अतत्त्वशक्ति आदि शक्तियाँ ऐसी तो हैं जिनसे आत्मा परमें कुछ भी नहीं कर सके और भोग भी नहीं सकता; लेकिन आत्मा में ऐसी शक्ति का अभाव है कि पर में कुछ कर सके अथवा भोग सके; इसलिए अज्ञानी की मान्यता आधारहीन होने से सम्पूर्णतया मिथ्या है।
आत्मा का लक्षण तो चेतना है, चेतना जीव का जीवत्व है। चेतना का ही विशेषभाव ज्ञान है । इसप्रकार जानना आत्मा का मूलभूत स्वभाव है।
ज्ञान स्व-परप्रकाशक स्वभावी होने से, उसकी पर्याय स्वज्ञेय एवं परज्ञेय के आकाररूप होकर परिणमती है; गुणों का कार्य तो आत्मा के प्रदेशों में ही होता है, पर चतुष्टय में तो आत्मा का अत्यन्तभाव है। इसप्रकार आत्मा की अमूर्तिक ज्ञान पर्याय में, पर ऐसे लोकालोक का ज्ञान और आत्मा के अनन्तगुणों के तथा उनके परिणमनों का ज्ञान भी समा जाता है। साथ ही ज्ञान की वह पर्याय, महान सामर्थ्य का स्वामी ऐसे ज्ञायकरूपी ज्ञेय को भी जानता है, ऐसी महान अपरिमित ज्ञान का प्रकाशन भी ज्ञान, अपनी आत्मा में ही करता है; आत्मा में प्रकाशत्व नाम की शक्ति है, उसके द्वारा आत्मा अपने गुणों के कार्यों का वेदन अपने में ही करता है और स्वच्छत्वशक्ति के कारण लोकालोक के आकार अमूर्तिक ज्ञानोपयोग प्रतिभासित होते हैं अर्थात् ज्ञान, ज्ञेयों के आकाररूप परिणम जाता है। ज्ञान आदि प्रत्येक गुण के कार्यों का स्वामी भी अकेला आत्मा ही है। क्योंकि आत्मा में स्व-स्वामित्व सम्बन्ध नाम की शक्ति है; इसलिए जाननक्रिया का स्वामी भी आत्मा ही है, ज्ञेय उसके स्वामी नहीं हो सकते; इसीप्रकार परिणम्य-पारिणामिकत्व नाम की शक्ति के कारण आत्मा स्वयं ज्ञान भी है एवं स्वयं ज्ञेय भी है ज्ञेयाकार रूप भी है एवं
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ज्ञानाकार स्वभावरूप भी स्वयं ही है। इसीप्रकार स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति के कारण आत्मा अपने धर्मों अर्थात् गुणों के परिणमनों में स्वयं ही व्यापता है।
उक्त चर्चा से स्पष्ट है कि आत्मा की जाननक्रिया आत्मा की स्वभावभूत क्रिया है और उसकी व्याप्य-व्यापकता आत्मा के साथ होने से उसका उसके साथ तादात्म्यसिद्ध सम्बन्ध है। ऐसे ज्ञान का परिणमन, उत्पाद-व्यय स्वभावी पर्याय होने से वह प्रतिसमय जाननेरूप परिणमन करती है, इसप्रकार ज्ञान प्रत्येक समय का ज्ञायक ही है। ऐसी ज्ञान पर्याय आत्मा के अनन्तुगणों के कार्यों को भी जानती है - इसप्रकार उक्त ज्ञान पर्याय में समस्त आत्मा ही समा जाता है। समयसार परिशिष्ट में भी कहा है - अनन्त शक्तियाँ ज्ञान में उछलती हैं, इसप्रकार ज्ञान की शुद्ध पर्याय में अपनी आत्मा भी द्रव्य-गुण-पर्याय सहित समा जाती हैएवं समस्त परज्ञेय अर्थात् लोकालोक भी उसी ज्ञान पर्याय में समा जाता है। विशेषता यह है कि इतने विशाल प्रमेयों को अपने में समा लेनेवाली ज्ञानपर्याय, उस ज्ञेय समूह से अपितु अपने गुणों के ज्ञान से भी, न्यायाधीश के समान अलिप्त रहता हुआ जानता है अर्थात् वह किसी के साथ एकमेक नहीं होता । इसप्रकार सिद्ध है कि आत्मा ज्ञान भी है, ज्ञेय भी है और ज्ञायक भी है। ऐसे आत्मा में अभेदरूप से स्व के द्रव्य उसके अनन्त गुणों एवं त्रिकालवर्ती अनन्तानन्त पर्यायों का ज्ञान एकसाथ समा जाता है एवं विश्व के अनन्तानन्त द्रव्य, उनके गुण एवं उनके त्रिकालवर्ती परिणमनों का एकसाथ होनेवाला ज्ञान भी समा जाता है; क्योंकि आत्मा अमूर्तिक है, स्वपरप्रकाशक है, इतना होते हुए भी ज्ञेयों का अंश भी ज्ञान में नहीं आता; अपितु ज्ञान ही अपनी सामर्थ्य से ज्ञेयों के आकार हो जाता है, उसी को ज्ञेयों को जानना - ऐसा कहा जाता है। इसप्रकार