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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
ज्ञानधारा एवं कर्मधारा
प्रश्न- ज्ञानी का परज्ञेयों में अपनत्व नहीं होने पर भी उनके प्रति आकर्षण तो वर्तता है, इसी से उपयोग भी बार-बार उनकी ओर जाता है। ऐसी स्थिति में उनका आकर्षण तोड़ने के लिए भेदज्ञान का अभ्यास वर्तना तो अवश्यंभावी है ?
उत्तर - ज्ञानी को सहजरूप से दो धाराएँ वर्तने लगती हैं। एक तो सामान्य ऐसे ज्ञायक में स्वामित्व पूर्वक वर्तनेवाली ज्ञानधारा और दूसरी विशेष अर्थात् भावकर्म आदि ज्ञेयों में परत्वपूर्वक वर्तनेवाली कर्मधारा, ज्ञान दोनों धाराओं को जानता हुआ वर्तता रहता है; क्योंकि ज्ञान का स्वभाव स्व-पर दोनों को जानने का है इतना विशेष है कि ज्ञान दोनों से अछूता रहते हुए जानता रहता है । किसी में नहीं मिल जाता । तटस्थ रहते हुए जानता है। ज्ञान की ऐसी धारा अनवरतरूप से चलती रहती है। साथ ही श्रद्धागुण के परिणमन की धारा भी अनवरतरूप से ज्ञायक में अपनत्वपूर्वक की चलती रहती है ।
ज्ञानी का ज्ञान सम्यक् होता है, उसको वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा और ज्ञान अक्षुण्ण रूप से वर्तता रहता है । प्रत्येक वस्तु 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यंयुक्तं सत्' है। अनादि-अनन्त ध्रुव रहते हुए भी परिणमन करती हैं; इसीप्रकार उनकी सत्ता अनादि-अनन्त वर्तती रहती है। उनके प्रत्येक परिणमन पाँच समवायपूर्वक उनके उत्पत्ति के नियत काल में, अपनी पर्यायगत योग्यता के अनुसार, निश्चित निमित्त की उपस्थिति में अपनी स्वयं की सामर्थ्य से अनादि-अनन्त उनमें ही होते रहते हैं, कभी व्यवधान नहीं पड़ता और न कभी अन्यप्रकार से परिणमते हैं। ऐसे प्रत्येक द्रव्य के परिणमन को
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
ही क्रमबद्ध परिणमन कहते हैं। ऐसा परिणमन स्वद्रव्य का भी होता है एवं परद्रव्यों का भी होता है । अपने आत्मा के अनन्तगुणों के परिणमन भी ज्ञान के लिए तो ज्ञेय ही हैं। जिसतरह अन्य द्रव्य ज्ञान के लिए ज्ञेय हैं; उसीप्रकार आत्मा के गुणों के परिणमन भी ज्ञेय नहीं; अपितु परज्ञेय हैं। स्वज्ञेय तो मात्र ज्ञायक ही है। आत्मद्रव्य के प्रत्येक गुणों के परिणमन भी अन्यद्रव्यों के अनुसार, पाँच समवायपूर्वक क्रमबद्ध होते रहते हैं। ज्ञानी को ऐसे वस्तुस्वरूप की श्रद्धा होने से एवं पर ज्ञेयमात्र में परत्वबुद्धि होने से, उसका ज्ञेयों में अपनत्व तो होता ही नहीं वरन् कर्तृत्वबुद्धि भी नहीं होती; फिर भी ज्ञेय तो ज्ञान में ज्ञात हुए बिना भी नहीं रहते तथा स्व में अपनत्वपूर्वक स्थिरता की कमी के कारण आत्मा की परिणति भी उस ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहती और ज्ञानी उन ज्ञेयों की ओर से ज्ञान को हटाकर ज्ञायक की ओर ले जाने का प्रयत्न भी नहीं करता और न उनका नाश करके अन्यप्रकार के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा करता हैं; क्योंकि उसको श्रद्धा है कि मेरे ज्ञान की इससमय की पर्याय की योग्यता इनको जाननेरूप परिणमने की थी, वह प्रगट हुई है और उन ज्ञेयों की इस समय की योग्यता मेरे ज्ञान में निमित्तपने की थी वह प्रगट हुई है, दोनों का उत्पाद दोनों के क्रमबद्ध परिणमन हैं, इन कार्यों के करनेवाली दोनों की पर्यायें हैं, मैं तो इन सबसे भिन्न त्रिकाली ज्ञायक हूँ । इसप्रकार की श्रद्धा के बल से ज्ञेयों में स्वामित्व नहीं होता, परत्व बना रहता है। ज्ञानी का पुरुषार्थ तो मात्र ज्ञायक में अपनत्व बनाये रखने का और ज्ञेयों में अपनत्व नहीं होने देने का होता है, ज्ञेयों को हटाने अथवा भावों के परिवर्तन करने का नहीं होता । प्रथम पुरुषार्थ में वीतरागता की उत्पत्ति होती है और द्वितीय प्रकार के प्रयत्नों में राग उत्पन्न होता है जो संसार मार्ग है।
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