Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ नहीं करता। और वेदन भी सब गुणों के कार्यों का अभेद एक ही होता है। ऐसी स्थिति में जिसमें श्रद्धा ने अपनत्व एवं स्वामित्व माना होगा तो ज्ञान भी उसको ही अपने रूप जानेगा तथा आकुलता अथवा अनाकुलतारूप जैसा परिणमन होना होगा वैसा जानेगा । इसप्रकार श्रद्धा का कार्य और ज्ञान का कार्य तो भिन्न-भिन्न ही वर्तता है। मिश्र होकर एक नहीं हो जाता; लेकिन सबका प्रकाशन ज्ञान द्वारा ही होता है; इसलिये अज्ञानी को भेदज्ञान दृष्टि का उदय नहीं होने से और यथार्थ वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं होने से, अपने विकारी भावों को ही स्व मानकर किंकर्तव्य विमूढ़ होकर अज्ञानी बना रहता है। इसके विपरीत ज्ञानी को वस्तु के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान होने से उसको सबके परिणमन भिन्न-भिन्न ज्ञात होने से वह भ्रमित नहीं होता और अपना अपनत्व ज्ञायकभाव में अक्षुण्ण रखते हुए प्रगट हुए अन्य भावों से सहज रूप से भेदज्ञान वर्तता रहता है। फलस्वरूप उसको मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ भी सहज वर्तता रहता है। श्रद्धा सामान्य में अपनत्व करती है प्रश्न - जब ज्ञान और भावकर्म एकसाथ प्रगट रहते हैं तो ज्ञान भेदज्ञान कैसे करेगा? उत्तर - आत्मा के अनन्तगुणों का परिणमन एकसाथ होते हुए भी, उनमें वर्तनेवाले सब गुण अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते, उस परिणमन में सबका कार्य अपना-अपना परिणमता रहता है; क्षेत्र अपेक्षा सबका क्षेत्र एक है; परन्तु कार्य सबके अलग-अलग वर्तते हैं। वस्तुस्वरूप ही ऐसा आश्चर्यकारी है; इसलिए मिश्र परिणमन होते हुए भी ज्ञान तो भावकर्मों से अछूता रहते हुए उनको भी जानता है; इसी कारण भावकर्म की अशुद्धि उसको क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ स्पर्श भी नहीं कर पाती। __ आत्मा के श्रद्धा एवं चारित्र गुणों के परिणमन की ऐसी योग्यता है कि स्वभाव के विपरीत परिणम सकते हैं; किन्तु ज्ञान तो अनवरतरूप से मात्र जाननेरूप ही परिणमता है; जानने के विपरीत अजानपनेरूप नहीं परिणमता; न्यूनाधिक जानना विपरीतता नहीं हैं; फिर भी जाननक्रिया एवं भावकर्म दोनों परिणमन एकसाथ चलते रहते हैं। ___ उक्त स्थिति वर्तते हुए भी ज्ञानी का स्वामित्व सामान्य स्वभाव ऐसे ज्ञायक में होने से, उसका ज्ञान भी ज्ञायक को तो स्व जानता हुआ एवं अन्य जो कुछ भी ज्ञात होता है उनको पर जानता हुआ उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की श्रद्धा ज्ञायक में स्वामित्व करती हुई और ज्ञान, ज्ञायक को स्वज्ञेय के रूप में और अन्य सबको परज्ञेय जानते हुए दोनों एकसाथ वर्तते रहते हैं; यह सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसप्रकार उसके ज्ञान में प्रतिसमय सहजरूप से स्व-पर विवेक वर्तता रहता है अर्थात् भेदज्ञान वर्तता रहता है। कोई अलग से पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता । रुचि अनुयायी वीर्य के अनुसार, ज्ञायक में अपनत्व होने से रुचि भी उसी की ओर रहती है; इसप्रकार भेदज्ञान की प्रक्रिया सहज वर्तती रहती है। अज्ञानी की श्रद्धा में ज्ञान में ज्ञायक तो आया नहीं और पर में अपनत्व की श्रद्धा, श्रृखंलाबद्ध अनादि से चली आ रही है; अत: ज्ञान भी तदनुसार जानता हुआ उत्पन्न होता है। इसलिए भावकर्म ज्ञात होते हुए ही अज्ञानी उसी में स्वामित्व कर लेता है । फलत: वह स्वयं को ही मोही-रागी-द्वेषी मान लेता है। उनका संयोग अपने में कर लेता है, इसलिए ऐसे भावों को संयोगीभाव भी कहा जाता है। ऐसे जीव को भेदज्ञान के विपरीत भावकर्म के साथ अभेद

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