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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से उपलब्धि समस्त चर्चा का सारांश यह है कि विश्व अर्थात् छहों द्रव्यों के परिणमन क्रमबद्ध व्यवस्थित चल रहे हैं, किसी में किसी के द्वारा कुछ भी करने की गुजाइश नहीं है। सबमें से प्रत्येक की सत्ता स्वतंत्र होते हुए, अपनी शक्ति द्वारा अपने-अपने स्वभावों में, अपनीअपनी योग्यतानुसार, अपनी शक्ति द्वारा, अपने-अपने स्वकाल में अनादि-अनन्त क्रमबद्ध परिणम रहे हैं। उनमें पाँच द्रव्य तो अचेतन हैं; इसलिए उनके तो पाँचों समवाय भी निश्चित क्रम से परिणमते रहते हैं; इसलिए उनके क्रमबद्ध परिणमन की स्वतंत्रता सरलता से समझ में आ जाती है लेकिन अज्ञानी को एक जीवद्रव्य के परिणमने की स्वतंत्रता एवं क्रमबद्धता का विश्वास नहीं होता।
जीवद्रव्य भी स्वतंत्र सत्ता धारक उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक, सभी द्रव्यों में समान परिणमने वाला पदार्थ है। वह भी अपने अनन्त स्वभावों का धारक अपनी ही पर्यायों में परिणमनेवाला द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य का परिणमन उनके स्वयं के प्रदेशों में होता है। वही उसके परिणमने का स्वक्षेत्र है। परिणमन का भाव भी उसका स्वयं का स्वभाव है एवं परिणमन निश्चितरूप से प्रतिसमय होता है, यही उसका स्वकाल है। इसप्रकार प्रत्येक जीव पदार्थ अपने-अपने स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में अवस्थित रहते हुए अपने ही स्वभावों में निश्चित स्वकाल के अनुसार क्रमबद्ध परिणमते रहते हैं। जीवद्रव्य के चतुष्टय में अन्यद्रव्य का तो अत्यन्ताभाव वर्तता है; इसलिए जीवद्रव्य के क्रमबद्ध होनेवाले परिणमन में कोई भी अन्य द्रव्य व्यवधान कर नहीं
सकता । इसप्रकार सब द्रव्यों के परिणमन उन-उन द्रव्यों के स्वभावों सहित उनके स्वयं के क्षेत्र में सीमित रहते हुए अपने निश्चितक्रम से वर्तनेवाले काल में क्रमबद्ध होते रहते हैं; इसलिए प्रत्येक द्रव्य के परिणमन की क्रमबद्धता में व्यवधान करने की विश्व की किसी में भी सामर्थ्य नहीं है; अपितु अनन्त शक्ति के धारक सिद्धभगवान में भी नहीं है। ऐसा ही क्रमबद्ध जीवद्रव्य का भी परिणमन होता रहता है। अज्ञानी को विश्वास नहीं होता, इसकारण वस्तु का स्वरूप तो बदल नहीं सकता ? उसका विश्वास अर्थात् मान्यता ही मिथ्या सिद्ध होती है - ऐसा जिनवाणी से, युक्ति से अनुमान से एवं अपने
अनुभव से भी स्पष्ट सिद्ध होता है। इसलिए ज्ञानी को इसकी निःशंकतापूर्वक प्रतीति होती है। फलत: अपने आत्मा के ज्ञायकअकर्ता स्वभाव की उसको दृढ़ प्रतीति होती है, परद्रव्य अर्थात् ज्ञेयमात्र के प्रति अकर्तृत्वबुद्धि रहने से परिणति ज्ञेयमात्र की
ओर से सिमटकर ज्ञायक में एकत्व करने के लिए तत्पर हो जाती है। एकत्व उसी में होता है जिसमें स्वामित्व अर्थात् अपनत्व होता है और उसी में ममत्व होता है तथा उसी के स्वाभाविक परिणमन अर्थात् ज्ञानक्रिया आदि का कर्तृत्व और उसी के फल स्वाभाविक सुख आदि में भोक्तृत्व होता है। ज्ञायक में स्वामित्व होते ही अज्ञानी को अनादि से चला आ रहा पर में एकत्व-ममत्व टूटकर पर में कर्तृत्व एवं भोक्तृत्वबुद्धि का भी अभाव हो जाता है। इसप्रकार महान उपलब्धि होती है, क्रमबद्ध परिणमन की श्रद्धा की।
क्रमनियमित परिणमना स्वभाव है आत्मा का उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभाव है, उसीरूप उसका अस्तित्व रहता है; अतः अनादि-अनन्त ध्रुव रहते हुए उत्पादव्यय करते रहना ही वस्तु का मूलभूत स्वभाव है। इससे ही नियमित