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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
रहता है और स्व सामान्य में अपनत्व होते ही, सर्वगुण सम्यक्ता को प्राप्त होकर उसमें आंशिक एकत्व कर लेते हैं, ज्ञान निर्विकल्प होकर स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट हो जाता है और आनन्द का अनुभव कर लेता है।
उक्त स्थिति में भी आत्मद्रव्य के विशेषभाव ज्ञान में ज्ञात होते रहते हैं, उनके ज्ञान में रहने से भी श्रद्धा का अपनत्व सामान्य ऐसे ज्ञायक में बना रहता है; उसका विषय तो ज्ञान के विषयों से निरपेक्ष एक ज्ञायक ही रहता है, निर्विकल्प आत्मानुभूति के काल में तो ज्ञान में भी उक्त विषय गौण रहते हैं, उपयोगात्मक तो एक ज्ञायक ही रहता है; लेकिन सविकल्पदशा में विशेष आदि का ज्ञान उपयोगात्मक वर्तते हुए भी श्रद्धा के विषय में अपनत्व - स्वामित्व तो निर्विकल्प दशा के समय जैसा था वैसा ही बना रहता है । सविकल्प होने से उसमें कुछ भी न्यूनता नहीं आती; लेकिन स्वरूपाचरण प्रगट हो जाने से अनन्त गुणों का आंशिक अनुभव तो सविकल्प दशा में भी वर्तता रहता है। अनन्त गुणों में ज्ञान और आनन्द भी होते हैं; फलतः सविकल्पदशा में भी ज्ञायक का ज्ञान एवं आनन्द का आंशिक वेदन अनवरत रूप से वर्तता है। इसी कारण उसका पर में एकत्व नहीं होता, सहज रूप से भेदज्ञान वर्तता रहता है।
अभेद परिणमन में श्रद्धा-ज्ञान का कार्य भिन्न कैसे?
प्रश्न : ज्ञान में तो अनन्तगुणों के कार्य अभेद होने से मिश्र हो जाते हैं और वेदन भी एक ही होता है; ऐसी स्थिति में ज्ञान और
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
श्रद्धा का कार्य भिन्न-भिन्न कैसे वर्त सकेगा?
उत्तर : अनन्तगुणों के प्रदेश और आत्मा के प्रदेश भिन्न नहीं है, दोनों का अस्तित्व एक ही प्रदेशों में होने से प्रदेश भिन्नता नहीं है; लेकिन अतद्भाव रूप भिन्नता तो वर्तती है, अन्यथा गुणों की अनन्तता ही समाप्त हो जावेगी और जब गुणों में अतद्भावरूप भिन्नता है तो पर्यायों में भी भिन्नता वर्तना अवश्यंभावी है। परिणमन तो द्रव्य का होता है, गुणों के और द्रव्य के प्रदेश जब एक ही हैं तो परिणमन भी अभेद से एक ही होता है; लेकिन गुणों में अतद्भाव होने से उनके परिणमन में भिन्नता वर्तती है अर्थात् एक गुण का स्वभाव, दूसरे गुण के स्वभाव रूप नहीं हो जाता; फलतः प्रत्येक समय के परिणमन में प्रत्येक गुण का कार्य भी दूसरे गुण के कार्य से निरपेक्ष रहते हुए स्वतंत्र वर्तता रहता है; किसी का कार्य दूसरे गुणों के कार्य जैसा नहीं हो जाता - ऐसी स्वतंत्रता प्रत्येक परिणमन की है। प्रदेश एक रहते हुए भी कार्य भिन्न-भिन्न होते रहते हैं । ऐसा प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है।
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ज्ञान का स्वभाव तो, वस्तु जैसी है, उसको वैसा ही जानने का है। किसी को घटाने-बढ़ाने अथवा किसी में मिश्र करने का नहीं है। ज्ञान तो दर्पण के समान है, जो तटस्थ रहते हुए बिम्ब जैसा सामने हो, उसका प्रतिबिम्ब प्रकाशित कर देता है; उसीप्रकार ज्ञान की प्रगट पर्याय की तत्समय की योग्यता जिस ज्ञेय को जानने की होती है। उस समय उसी के अनुकूल ज्ञेय वर्तता होता है, दोनों की एक काल प्रत्यासत्ति है; इसलिये आत्मा के तत्कालीन परिणमन जिस-जिस गुण का परिणमन जैसा वर्तता होता है, तत्समय का ज्ञान भी अपनी स्वयं की योग्यता से उन ज्ञेयों के आकाररूप से ज्ञात होने लगता है, ज्ञान अपनी ओर से कुछ भी परिवर्तन