Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 22
________________ ३८ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ की क्रिया ही करता है; लेकिन वह क्रिया स्व एवं पर को जानती हुई प्रगट होती है। और उसके साथ तत्समय ही श्रद्धा आदि गुणों का कार्य भी प्रगट होता है, सबके प्रदेश एक ही हैं; इसलिये सबका वेदन साथ ही होता है। लेकिन उनमें श्रद्धा का कार्य मुख्य रहता है; उसका कार्य है अपनत्व करना। श्रद्धा अर्थात् अपनत्व का विषय एक ही होता है उसमें द्वैत नहीं होता। और ज्ञान के विषय स्व एवं पर अनेक होते हैं। स्व एवं पर संबंधित प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक होते हैं और विशेष में भी अनेकताओं की भरमार रहती है; इसलिये विशेषों को जाननेवाला ज्ञान सविकल्पक रहता है, यहाँ विकल्प का अर्थ राग सहित का विकल्प नहीं समझना अपितु अनेकता के अर्थ में समझना। और ज्ञायक में ज्ञान का परिणमन नहीं समझना; अपितु आत्मा का ध्रुवभाव समझना। श्रद्धा का विषय होता है मात्र एक। इसलिये वह निर्विकल्पक रहती है, द्वैत का अनुसरण नहीं करती। इसलिये उसका विषय मात्र एक सामान्य ही रहता है; किन्तु तत्समय के ज्ञान में सामान्य सहित विशेष स्व एवं पर सब रहते हैं। सामान्य सबका ध्रुव रहता है। श्रद्धा ने सामान्य ऐसे ध्रुव में अपनत्व किया; इसलिये वह अपने विषय को ज्ञान के साथ बदलती नहीं। श्रद्धा जिसको अपना मान लेती है, उसमें ही अपनापन बनाये रखती है। ज्ञान अपने विषय परिवर्तन करता रहे तो भी श्रद्धा तो उसी में अपनत्व रखती है। अनेक भव परिवर्तन होते रहें तो भी श्रद्धा ने जिसको स्व मान लिया वह उसको नहीं छोड़ती; उसकी प्रत्येक समय की पर्याय उस ही को स्व मानती हुई प्रगट होती रहती है; लेकिन जब श्रद्धा स्वयं ही अपनी मान्यता बदल लेवे तो उसका अपनेपन का विषय भी तत्समय परिवर्तन हो जाता है। ऐसी उसकी क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ स्वतंत्रता भी है और ईश्वरता भी है, ज्ञान आदि कोई भी उसकी मान्यता को परिवर्तित नहीं कर सकता। श्रद्धागुण का स्वभाविक परिणमन तो है कि, स्व को अपना मानना; जो अपना नहीं है उसको अपना मानना तो विपरीत मान्यता अर्थात् मिथ्याश्रद्धा है। ज्ञान का कार्य तो अत्यन्त निरपेक्ष तटस्थ रहते हुए मात्र जानना ही है, अपने को तो सामान्य-विशेषों सहित स्व ज्ञेय के रूप में जानना एवं सामान्य-विशेषों सहित परज्ञेयों को परज्ञेय के रूप में जाननामात्र है। अपनत्व करना, उसका कार्य नहीं है, वह श्रद्धा का कार्य है; लेकिन श्रद्धा ने स्वज्ञेय अर्थात् ज्ञायक में अपनत्व कर लिया तो उसके फलस्वरूप परिणति में शुद्धि वीतरागता का उत्पादन होने लगता है और स्वाभाविक कार्य के विपरीत श्रद्धा ने परज्ञेय में अपनापन मान लिया तो यह उसका विपरीत कार्य होने से अशुद्धि अर्थात् मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि का उत्पादन होने लगता है। आत्मवस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि समग्र अखण्ड वस्तु ज्ञान का अनुसरण नहीं करती; अपितु श्रद्धा का अनुसरण करती है। श्रद्धा ने जिसको अपना मान लिया, आत्मा के अनन्त गुण भी उस ओर ही कार्यशील हो जाते हैं; फलतः स्वज्ञेय ऐसे ज्ञायक को अपना मानने से समग्र आत्मा की शुद्धि प्रारंभ हो जाती है, वह बढ़ते-बढ़ते अन्त में पूर्ण शुद्ध होकर यह आत्मा भगवान् बन जाता है। इसके विपरीत परज्ञेयों में से किसी को भी अपना मानने से संसारमार्ग चलता रहता है। उक्त चर्चा से स्पष्ट है कि आत्मा तो ज्ञायक ही है और जानना उसका स्वभाव है; इसलिये आत्मा तो अपने श्रद्धा-ज्ञान सहित

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