Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ ४२ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ देखने की दृष्टि हो जाने से, वह जिस प्रकार स्वज्ञेय को द्रव्यदृष्टि से देखता है, उसी प्रकार परज्ञेयों को भी द्रव्यदृष्टि से देखता है । उसकी दृष्टि में परज्ञेयों के परिणमन गौण होकर सामान्य अभेद द्रव्य ही मुख्य रहता है, उनके परिणमन तद्तद् द्रव्यों के परिणमन उनकी योग्यतानुसार क्रमबद्ध परिणमते हुए भासने लगते हैं; फलतः मिथ्यात्व तो होता ही नहीं अपितु; रागादि भी प्रतिसमय क्षीणता को प्राप्त होते जाते हैं, तात्पर्य यह है कि मोहादि भावों की उत्पत्ति का अवकाश भी नहीं रहता। इसप्रकार सामान्य में अपनत्व होने का अपूर्व लाभ होता है। प्रश्न- ज्ञान में तो परज्ञेयों के परिणमन ही ज्ञात होते हैं; सामान्य तो ज्ञात होता नहीं? उत्तर - परिणमन अर्थात् विशेष तो सामान्य बिना होता नहीं और विशेष के अभाव में सामान्य का भी अस्तित्व नहीं होता। इसलिये जहाँ पर्याय है वहाँ द्रव्य भी है और जहाँ द्रव्य होता है वहाँ पर्याय भी रहती है; लेकिन पर्याय व्यक्त रहती है। और द्रव्य अव्यक्त रहता है। इसलिये पर्याय तो स्थूल ज्ञान में भी आ जाती है और द्रव्य अर्थात् सामान्य स्थूल ज्ञान में ज्ञात नहीं होता। लेकिन जहाँ भेद अर्थात् पर्याय है वहाँ अभेद ऐसा सामान्य भी रहता है अवश्य और श्रद्धा निर्विकल्प होती है, वह तो अभेद - सामान्य को ही विषय करती है। इसलिये ज्ञानी सामान्य विशेषात्मक पदार्थ में से, सामान्य में अपनापन स्थापन कर लेता है। श्रद्धा का विषय अव्यक्त रहता है, इसलिये ज्ञान के अनुभव में नहीं आता; लेकिन श्रद्धा का अपनेपने की मान्यता रूपी कार्य तो धारावाहिक रूप से चलता हुआ अनुभव में क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ४३ आता है । उसका विशेषों के परिवर्तन के साथ परिवर्तन नहीं होता; क्योंकि श्रद्धा का ऐसा ही स्वभाव है। जैसे ग्यारह अंग और नौ पूर्व के अभ्यासी को भी मिथ्या मान्यता धारावाहिक अव्यक्त रूप से वर्तती रहती है। इसीप्रकार नववें ग्रैवेयक जाने वाले शुक्ल लेश्या की मन्दकषायधारक द्रव्यलिंगीसाधु को भी यह मिथ्या श्रद्धा अव्यक्तरूप से धारावाहिक वर्तती रहती है। अनुभव में नहीं आती। ज्ञानी हो जाने पर ज्ञायक में अपनेपने की श्रद्धा परिणति में तो प्रगट हो जाती है और उपयोगात्मक ज्ञान में अप्रगट रहते हुए भी उसका कार्य प्रत्येक पर्याय में धारावाहिक प्रगट वर्तता रहता है, स्मृति में नहीं लाना पड़ता । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक के तो सभी कार्य, मिथ्यात्व दशा में वर्तनेवाले कार्यों के समान, धंधा - व्यापार, स्त्री-संभोग-कुटुंब परिपालनार्थ अशुभ लेश्या संबंधी भाव वर्तते हुए दिखते हैं; लेकिन फिर भी, सम्यक् श्रद्धा का कार्य अव्यक्त रहते हुए भी धारावाहिक रूप से अक्षुण्ण वर्त रहता है। सम्यग्दृष्टि हो जाने के कारण से उसका जीवन अस्वाभाविक और कृत्रिम नहीं हो जाता; अपितु सामान्य बना रहता है। इसी कारण अज्ञानी को यह विश्वास नहीं होता कि ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि अर्थात् मोक्षमार्गी हो सकता है; लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि अन्तर तो ज्ञानी की मान्यता में होता है । मान्यता अव्यक्त रहती है, वह ज्ञानी के तो ज्ञान में व्यक्त रहती है; इसलिये उसको उसका अनुभव भी वर्तता है; लेकिन अन्य व्यक्ति को उसका विश्वास नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को पहिले अपना मित्र मानता था फिर किन्हीं कारणों से वह उसी व्यक्ति को शत्रु मानने लग गया तो उसकी उस मान्यता को अन्य कैसे जान सकेगा अपितु जिसको शत्रु मान लिया गया है वह भी

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