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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
होता है अभेद और विशेष होता है भेद आदि अनेक । कथन ज्ञान की प्रधानता से किया जाता है। जीवत्वभाव पारिणमिकभाव होने से प्रत्येक जीव में अनादि-अनन्त धारावाहिक रहता है। वह कभी तिरोभूत नहीं होता।
ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक स्वभावी होने से प्रत्येक समय स्व को भी जानता है और पर को भी जानता है। स्व में तो स्व के द्रव्यगुण-पर्यायों को एवं पर में पर के अर्थात् छहों द्रव्यों के द्रव्य-गुणपर्यायों को जानता है; लेकिन जानना उतना ही होता है जितना
और जिसको जानने की उसकी प्रगट हुई योग्यता होती है; केवली भगवान की ज्ञानपर्याय की सामर्थ्य पूर्ण प्रगट हो जाने से, उनकी पर्याय में तो लोकालोक का ज्ञान एक साथ प्रगट रहता है छहढाला में कहा भी है - "सकल द्रव्य के गुण अनन्त पर्याय अनन्ता, जाने एकै काल प्रगट केवलि भगवन्ता।" लेकिन छद्मस्थ जीवों का ज्ञान क्षायोपशमिक होता है वह अपनी प्राप्त पर्याय की शक्ति अर्थात् योग्यता की प्रगटता के अनुसार स्व-पर को जानता है। जैसे एकेन्द्रिय जीव अपनी पर्याय की अति अल्प प्रगट हुई योग्यता जितना ही जानता है और पांच इन्द्रिय धारक सैनी जीव अपनी विशेष विकसित प्रगट पर्याय के अनुसार स्व-पर को जानता है। तात्पर्य यह है कि स्व-पर को जाननेरूप कार्य तो प्रत्येक जीव का प्रतिसमय होता ही रहता है ऐसे जाननस्वभाव को न्यून-अधिक जानने के भेद को गौण करके देखें तो निगोद से लगाकर सिद्ध भगवान तक के सभी आत्मा एक समान ध्रुव रूप से भी और पर्याय से भी ज्ञायक ही हैं अर्थात् त्रिकाल ज्ञायक है।
यह जाननेरूप परिणमन आत्मा की ज्ञानपर्याय है; क्योंकि पर्याय द्रव्यबिना होती नहीं और सत् दोनों का एक है, प्रदेश भी एक ही है; इसलिये स्व एवं पर के ज्ञानरूप परिणमन वह आत्मद्रव्य की पर्याय है
अर्थात् ज्ञानपर्याय का उत्पाद ही ज्ञेय के आकार का होता है - ऐसा ज्ञान का आकार ज्ञेय से निरपेक्ष रहते हुये ज्ञान की उपादान सामग्री अर्थात् प्रगट पर्याय की योग्यता से, उसके नियत काल में, उसकी स्वयं की शक्ति-सामर्थ्य से, आत्मा में होता है - ऐसा प्रत्येक आत्मा की ज्ञानपर्याय का स्वभाव है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक आत्मा की ज्ञानपर्याय, ज्ञेयों से निरपेक्ष रहते हुये अपनी प्रगट सामर्थ्य के अनुसार अपने प्रदेशों में रहते हुये ही, स्वद्रव्य एवं उसके गुण-पर्यायों तथा पर द्रव्यों एवं उनके गुण-पर्यायों के आकाररूप स्वयं परिणमती है। पर्याय में ज्ञेयों का ज्ञान वर्तने में न तो ज्ञान ज्ञेय तक जाता है और न ज्ञेय ही ज्ञान तक आता है तथा ज्ञेय के गुण-दोष भी ज्ञान में नहीं आते । इन कारणों से भी ज्ञान की ज्ञेय से निरपेक्षता ही सिद्ध होती है। सारांश यह है कि ज्ञेय, समीपवर्ती स्वयं के द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा तो दूरवर्ती पर एवं उनके द्रव्य-गुण-पर्याय हो; जानने की प्रक्रिया तो आत्मा के प्रदेशों में रहते हुये सबकी समानरूप से होती हैं। इसप्रकार प्रत्येक आत्मा की ज्ञान पर्याय धारावाहिक अनादि-अनन्त अनवरत रूप से चलती रहती है। कभी व्यवधान नहीं पड़ता। उक्त समस्त चर्चा से स्पष्ट है कि उक्त ज्ञानपर्याय स्वज्ञेय हो अथवा परज्ञेय हों, उनमें कौनसी पर्याय किस ज्ञेय के आकार किस समय परिणमित होगी यह भी सुनिश्चित रहता है और उसका धारावाहिक परिणमन क्रमबद्धरूप से चलता रहता है, ऐसी स्थिति में अज्ञानी का पर में कर्तृत्व का अभिप्राय तो आधारहीन सिद्ध होकर निरस्त हो जाता है
और आत्मा का ज्ञायकस्वभाव एवं अकर्तृत्व स्वभाव सिद्ध हो जाता है। साथ में यह भी सिद्ध होता है कि ज्ञान को जानने के लिये ज्ञेय के सन्मुख भी नहीं होना पड़ता; फलत: ज्ञान को इन्द्रियों की पराधीनता भी नहीं रहती। तात्पर्य यह है कि ऐसी श्रद्धा से ज्ञान अतीन्द्रियता प्राप्त करने की पात्रता प्रगट कर लेता है।