Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ अनन्त सामर्थ्य भी रहती है ऐसी अनन्त शक्तियों की धारक जो भी सत्ता है, वही आत्मा है। वही आत्मा अनन्त शक्तियों के साथ अनादिअनन्त ध्रुव रहते हुए, प्रत्येक समय परिवर्तन भी करता रहता है। उनकी सामर्थ्यो के परिवर्तन से उसका अस्तित्व हमको अनुभव में भी आता है । जैसे कभी सुख का वेदन कभी दुःख का वेदन होता है और उनका ज्ञान भी प्रत्येक समय आत्मा को होता रहता है और अनेक वर्षों के अन्तराल होने पर भी वे सुख-दुःख के वेदन आदि घटनाएँ ज्ञान में प्रत्यक्षवत् हो जाती हैं, इनसे भी आत्मा का ध्रुवत्व रहते हुए परिणमन भी स्पष्ट रूप से समझ में आता है। ऐसी सार्मथ्यों का धारक और अनादि अनन्त रहने वाला आत्मा ही, मृत्युकाल में इस शरीर से निकलकर अन्यत्र जाता है "वही मैं हूँ”, उसका कभी नाश नहीं होता । और इस शरीर का तो वर्तमान में ही नाश हो जाता है; इसलिये मेरा अस्तित्व तो वह आत्मा ही है अर्थात् "मैं तो ज्ञान आदि अनन्तशक्तियों का भंडार ऐसा ज्ञायक आत्मा हूँ।" जिस शरीर को मैंने मेरा अस्तित्व मान रखा था, "वह मैं नहीं हूँ" । अन्तरंग में ऐसी श्रद्धा जाग्रत हो जाने से, अपनापन सहज ही ज्ञायक की ओर हो जाता है। ऐसा होते ही आत्मा की अन्य शक्तियाँ भी ज्ञायक के सन्मुख कार्यशील हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि शरीर में अपनेपने की मान्यता छूटते ही, शरीर से सम्बन्ध रखने वाले स्त्री-पुत्रादि सचेतन परिकर एवं मकान, धन आदि अचेतन परिकर में जो अपनापन रहता था, उस मान्यता में भी ढीलापन आ जाता है एवं शरीर के रक्षण-पोषण में भी ग्रद्धतापूर्वक कर्तृत्वबुद्धि रहती थी इसमें भी शिथिलता आने लग जाती है। और ज्ञायक में अपनत्व की श्रद्धा में जागरुकता वर्तने लगती है। यही सच्चे आत्मार्थी का चिन्ह है। प्रश्न - इससे ज्ञायक का अस्तित्व तो सिद्ध होता है; लेकिन ३४ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ उसकी पहिचान तो नहीं होती ? उत्तर - जानने की क्रिया की प्रगटता से ही उसकी पहिचान तो हो जाती है, जिनवाणी में आत्मा को पहिचानने का लक्षण ज्ञान अर्थात् जाननक्रिया ही बताया है। यह ज्ञान आत्मा में ही मिलता है, अन्य किसी में नहीं मिलता और आत्मा निगोद में पहुँच जावे अथवा सिद्ध दशा में पहुँच जावे तो भी ज्ञान तो धारावाहिक रूप से अक्षुण्ण वर्तता रहता है। ऐसा ज्ञान अर्थात् जानने की क्रिया से उसके स्वामी को पहिचानना अत्यन्त सुगम हो जाता है। क्रिया, क्रियावान् के बिना नहीं होती और क्रियावान् और क्रिया का तादात्म्य होता है वह उससे अलग नहीं रहता। इसलिये जानन क्रिया ही ज्ञायक है, उस भेद को गौण करके देखें तो वह ज्ञान स्वयं ही तो ज्ञायक है और स्वयं ही ज्ञान है; ज्ञायक का अस्तित्व अन्यत्र कहीं नहीं होता। श्रद्धा के बलपूर्वक ज्ञान को अन्तर्मुख करके देखें तो ज्ञायक के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं अर्थात् अनुभव होता है। अमूर्तिक ज्ञायक, इन्द्रियाधीन ज्ञान का विषय नहीं बन सकता, उसका तो आगम ज्ञान द्वारा स्वरूप समझकर निःशंक निर्णय होने पर, उस रूप अपना अस्तित्व मानने की रुचि प्रगट होती है। तत्पश्चात् ज्ञान अर्न्तलक्ष्यी होकर अमूर्तिक ज्ञायक को भी अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव कर लेता है, निर्विकल्प होकर अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद चख लेता है। इसप्रकार उक्त प्रकार के अनुभव होने पर ही सच्ची पहिचान होती है एवं सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न होती है। तथा मोक्षमार्ग प्रारम्भ हो जाता है। अभ्यासक्रम में तो प्रथम आगम ज्ञान द्वारा निःशंक श्रद्धा-विश्वास किया जाता है एवं उसी रूप अर्थात् ज्ञायकरूप अपना अस्तित्व मानने की तीव्र रुचि जाग्रत होती है तथा शरीर और शरीर से सम्बन्ध रखने वालों में जो अपनापन ३५

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