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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
ही उस आकार होने से वही ज्ञानाकार है; इसलिये वही उस उपादान कारण का उपादेय रूपी कार्य है। यहाँ उपादेय का अर्थ ग्रहण करने योग्य नहीं समझना , यहाँ तो उपादान का कार्य होने से उसे उपादेय कहा है। उक्त स्थिति से स्पष्ट है कि ज्ञान का कार्य तो एक ही हुआ है; लेकिन उसके कर्ता अर्थात् कारण दो बन जाते हैं; इसलिये कार्य को देखने की दृष्टि भी दो हो जाती हैं। उसी कार्य को निमित्ताधीन दृष्टि से अर्थात् निमित्त को मुख्य करके देखा जावे तो वह कार्य, निमित्त जैसा ही अर्थात् ज्ञेय ही दिखने लगता है और उसी कार्य को उपादान की दृष्टि से अर्थात् उपादान को मुख्य करके देखा जावे तो वह ज्ञान का ही परिणमन अर्थात् ज्ञानाकार दिखने लगता है। इस कार्य की सम्पन्नता में उपादानरूपी द्रव्य के परिणमन एवं निमित्त रूपी द्रव्य के परिणमन, दोनों अपने-अपने में अपने-अपने नियतक्षण में अपनी योग्यतानुसार परिणमते रहते हैं, उनमें कोई व्यवधान नहीं पड़ता और विषय परिवर्तन होने पर भी ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी अक्षुण्ण बना रहता है तथा पर का जानना भी अनिवार्य रूप से बना रहता है। अन्तर पड़ता है तो ज्ञान के कार्य को देखने की दृष्टि में पड़ता है। उपादान की दृष्टि में ज्ञानाकार ही हैं, ज्ञेयाकार नहीं और निमित्ताधीन दृष्टि में ज्ञेयाकार ही हैं, ज्ञानाकार नहीं । उपादान दृष्टि में ज्ञेय तिरोभूत हो जाते हैं (गौण रह जाते हैं) अभाव नहीं हो जाता और निमित्ताधीन दृष्टि से देखने वाले को, ज्ञान परिणमन का स्वामी ऐसा ज्ञायक साथ रहते हुए भी (ज्ञान का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक होने से) अज्ञानी की दृष्टि में वह तिरोभूत हो जाता है। ज्ञानी की दृष्टि सम्यक् हो जाने से उसको निमित्ताधीन दृष्टि नहीं होती; अपितु पर के साथ स्व का ज्ञान वर्तता रहता है, फलतः उसका एकत्व निमित्त में नहीं हो पाता; अज्ञानी निमित्त अर्थात् ज्ञेयपदार्थ में एकत्व (अपनापन) कर लेता है, इसलिये जिनवाणी में निमित्ताधीन दृष्टि को मिथ्यादृष्टि
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ कहा है और उपादान दृष्टि को सम्यग्दृष्टि कहा है। इसप्रकार उपादानदृष्टि की मुख्यता से ऐसा कहा जावे कि ज्ञानी पर को नहीं जानता तो भी उसका तात्पर्य यह नहीं होता कि ज्ञानी को पर को जानने का अभाव हो जाता है; क्योंकि ज्ञानी भी तत्समय वर्तनेवाली अपनी पर्याय में वर्तनेवाली अशुद्धि को निश्चय से जानता है; परन्तु अज्ञानी तो पर को ही जानता है और पर को अपने रूप से जानता है। इसलिये उसको जानने में तो पर ही मुख्य रहता है; स्व का तो उसे परिचय ही नहीं होता।
तात्पर्य यह है कि जिनवाणी में पर ज्ञेय पदार्थों को जानने का निषेध नहीं है; अपितु एकत्वबुद्धि पूर्वक अर्थात् अपनेपनेपूर्वक परज्ञेयों को जानने का निषेध है; क्योंकि एकत्वबुद्धिपूर्वक जानना ही अध्यवसान है और वही मिथ्यात्व है। इसके विपरीत ज्ञानी का परत्वबुद्धिपूर्वक जानना होता है, वह अध्यवसान रहित मात्र जानना होता है - ऐसा जानना वीतरागता को घात करने वाला नहीं होता। इसलिये उसका निषेध नहीं है। समयसार गाथा २६९ एवं उसकी टीका मूलतः पठनीय है। ___ गाथार्थ :- “जीव अध्यवसान से तिर्यंच, नारक, देव और मनुष्य इन सर्व पर्यायों तथा अनेक प्रकार के पुण्य और पाप भाव से (ज्ञान में आते हुए) इन स्वरूप अपने को करता है और उसीप्रकार जीव अध्यवसान से धर्म-अधर्म, जीव-अजीव और लोक-अलोक (जो मात्र ज्ञान में ज्ञात होते हैं) इन सब रूप अपने को करता है।"
उक्त गाथा से स्पष्ट है कि जानने मात्र से बंध नहीं है वरन् एकत्वबुद्धिपूर्वक अर्थात् अध्यवसानपूर्वक जानने से बंध होता है। उक्त गाथा बंध अधिकार की है। इसके अतिरिक्त जीवाधिकार की गाथा १५ की टीका से भी उक्त आशय की पुष्टि होती है। वह निम्न प्रकार है