Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ उत्तर - जिनवाणी में सभी समस्याओं का समाधान है। जिनवाणी में असद्भूत-सद्भूत एवं उपचार-अनुपचार के भेदों द्वारा समस्त ज्ञेय समूह को चार भेदों में विभक्त कर, उनसे अपनत्व एवं कर्तृत्व तोड़ने के लिये समझाया है; इसलिए अपनत्व तोड़ने के लिये तो उन सबका समावेश एक पर में आ जाता है; क्योंकि स्व तो अभेदअखण्ड त्रिकाली ज्ञायक एक ही रहता है। इसप्रकार जिन का ज्ञायक में सद्भाव नहीं हो, वे सब पर ही रहेंगे, स्व नहीं। इस प्रकार स्व के पक्ष में तो एक ज्ञायक रह जाता है और ज्ञायक के अतिरिक्त जो भी ज्ञात हों अभेद रूप से सब एक पर के पक्ष में रह जाते हैं, अनेकता नहीं रहती। ___ दूसरी अपेक्षा से भी विचार करें तो परमशुद्ध निश्चयनय का विषय त्रिकाली ज्ञायक तो स्व है और ऊपर कहे हुए चारों भेदों के विषयों में स्वामित्व,आदि से उत्पन्न होने वाले मिथ्यात्व से सम्बन्ध रखने वाली अशुद्धि आदि सभी प्रकार की अशुद्धि अभेदरूप पर में आ जाती है। जिनवाणी में ऐसी अशुद्धि को भावकर्म भी कहा है। इसलिये आत्मा की शुद्धि के लिये, भावकर्म को भी पर मानकर उसका अभाव करने के लिए अभेदरूप से भेदज्ञान में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार इस अपेक्षा भी अनेकता नहीं रहती। इसप्रकार भेदज्ञान के लिये आत्मा के समक्ष एक ओर तो ज्ञायक स्व के रूप में रह जाता है और दूसरी ओर अभेदरूप से समस्त ज्ञेय सिमट कर, पर के रूप में रह जाते हैं। उक्त स्थिति स्व-पर को जाननेवाली ज्ञेयाकार ज्ञान पर्याय की वर्तती है। तात्पर्य यह है कि भेदज्ञान का विषय भी उसी पर्याय में है, जो भेदज्ञान का कार्य क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ करती है। इसप्रकार भेदज्ञान करनेवाली पर्याय तथा जिनका स्व एवं पर के रूप में विभाजन अर्थात् भेद करना है। उन दोनों का अस्तित्व एक ही है; लेकिन स्व का स्व के रूप में स्वीकार हुए बिना, पर में परपने की श्रद्धा जाग्रत नहीं हो सकती और भेदज्ञान भी नहीं हो सकेगा। ज्ञान स्व एवं पर का निर्णय भी कर सकता है एवं श्रद्धा के समक्ष स्व एवं पर के रूप में प्रस्तुत भी कर सकता है; किन्तु अपनेपन की श्रद्धा नहीं कर सकता। अपनेपन की श्रद्धा अर्थात् प्रतीति करने का कार्य तो श्रद्धागुण ही करता है अर्थात् अपनेपन की श्रद्धा तो श्रद्धा गुण का परिणमन है। वह श्रद्धा का परिणमन भी भेदज्ञान को तत्पर ज्ञानपर्याय के साथ वर्तता हो, तब ही प्रज्ञा भेदज्ञान करने में सफलता को प्राप्त होती है। ऐसी स्थिति ज्ञानी के परिणमन में तो धारावाहिक वर्तती रहती है; इसलिये उसको भेदज्ञान सहज रूप से वर्तता रहता है; किन्तु अज्ञानी साधक ने भी उक्त पुरुषार्थ की निशंक श्रद्धा के बल से अपने ज्ञायक में अपनत्व की रुचि उत्पन्न कर ली हो और ज्ञायक के आश्रय से मिथ्यात्व-अनन्तानुबंधी की क्षीणता भी उत्पन्न कर ली हो तो वह भी, उक्त प्रकार के भेदज्ञान की स्थिति को क्रमशः बढ़ाता हुआ स्वानुभूति कर लेता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञायक में अपनत्व हुए बिना स्वानुभूति नहीं होती, उसके बिना परिणति में स्व का ज्ञान-श्रद्धान भी नहीं होता; और स्व के बिना पर का भेद भी नहीं हो सकता। इसलिये भेदज्ञान के लिये ज्ञायक में अपनत्व की श्रद्धा महत्वपूर्ण है, मात्र ज्ञान ही नहीं। प्रज्ञाछैनी प्रश्न - उक्त भेदज्ञान में प्रज्ञा छैनी का कार्य किस प्रकार होता है? और प्रज्ञा छैनी का स्वरूप क्या है?

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