Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ कार्य के अनुकूल परिणमन होना तो उसका योगदान अर्थात् निमित्तपना है ही। ज्ञान पर्याय का, ज्ञेय के जानने की प्रक्रिया में इतना ही सम्बन्ध होता है। उसी को ज्ञेयाकार कहकर समझाने की पद्धति जिनवाणी में है। ज्ञेय के कारण ज्ञान में ज्ञेयाकार बन जाता हो - ऐसा उसका अभिप्राय नहीं है; वास्तव में तो वह ज्ञान का ही परिणमन है अर्थात् ज्ञानाकार ही है। ज्ञान के जानने की प्रक्रिया तो अखण्ड धारावाहिक परिणमन में, उसकी स्वयं की योग्यता से अपने नियत स्वकाल में नियत ज्ञेय को जानने रूप परिणमी है, उसमें ज्ञेय का किंञ्चित् मात्र भी योगदान नहीं होता। लेकिन उस ज्ञानाकार को ज्ञेयाकार कहकर परिचय कराये बिना स्व और पर का भेद भी करना संभव नहीं होता। उसके अभाव में स्वपर का भेदज्ञान करना भी शक्य नहीं होता; इसलिये तत्संबंधी ज्ञान पर्याय को ज्ञेयाकार पर्याय कहकर समझाना अशक्यानुष्ठान होने से जिनवाणी में प्रयोग किया गया है। प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक ही होती है, सामान्य वह अंशी है और विशेष उसका अंश है। सामान्य विशेष के बिना नहीं रहता और सामान्य के बिना विशेष नहीं रहता; इसलिये ज्ञान सामान्य है और जाननक्रिया रूप पर्याय उसका विशेष है। जिसप्रकार ज्ञानपर्याय, ज्ञान सामान्य का विशेष है; उसी प्रकार ज्ञेय रूपी पदार्थ वह सामान्य है और उसका परिणमन वह उसका विशेष है। प्रत्येक द्रव्य के विशेष में उस द्रव्य का सामान्य ही अन्वय रूप से धारावाहिक बहता है, अन्य द्रव्य का सामान्य उसमें नहीं परिणम सकता; क्योंकि एक में दूसरे का अत्यन्ताभाव वर्तता है। इसीप्रकार ज्ञेयाकार ज्ञान के परिणमन में भी, ज्ञान ही अन्वय रूप से धारावाहिक बहता हुआ वर्तता रहता है, ज्ञेय का अंश भी नहीं रहता, ज्ञान को क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ तो ज्ञेय के सन्मुख होकर भी उसको नहीं जानना पड़ता वरन् ज्ञान अपनी पर्याय की योग्यता को ही जानता है जो ज्ञेय के आकार है। प्रश्न - यह भी तो कहा जाता है कि आत्मा पर ज्ञेयों को नहीं जानता? उक्त कथन से भी ऐसा ही भ्रम होता है? उत्तर - स्व-पर प्रकाशक तो ज्ञान का स्वभाव है। वस्तु का स्वभाव तो अनादि अनन्त अपरिवर्तित रहता है, वह तो कभी, कहीं भी बदल नहीं सकता। जब केवली भगवान् स्व एवं पर सबको जानते हैं, तो कोई आत्मा पर को नहीं जानता हो, ऐसा तो सम्भव ही नहीं है; क्योंकि स्व-पर को जानना तो ज्ञान का स्वभाव है, ज्ञान आत्मा का निश्चय स्वभाव है व्यवहारस्वभाव नहीं है; इसलिये वस्तु के स्वभाव की अपेक्षा कथन जिनवाणी से मैल नहीं खाता। आत्मा का पर को जानना भी निश्चय स्वभाव है, व्यवहार नहीं। लेकिन उपरोक्त वस्तु स्वभाव को निःशंकतापूर्वक स्वीकार कर लेने के पश्चात् भी अपना मोक्षमार्गरूपी प्रयोजन सिद्ध करने के लिये नयज्ञान के द्वारा उपादान की मुख्यता से भेदज्ञान की सिद्धि के लिये अगर ऐसा कहा भी जावे तो भी वह वस्तु का स्वरूप नहीं माना जा सकता वरन् मात्र प्रयोजन सिद्धि के लिये किया गया अपेक्षित कथन है - ऐसा मानना चाहये; इसलिये आत्मार्थी की श्रद्धा और ज्ञान में वस्तु का स्वभाव निरंतर जाग्रत रहना चाहिये। प्रश्न - उक्त कथनों से पर्याय की क्रमबद्धता एवं पुरुषार्थ कैसे सिद्ध होता है ? उत्तर - क्रमबद्ध परिणमन होना तो वस्तु का वस्तुमत स्वभाव है, यथा - “सत्द्रव्यलक्षणम्” एवं “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्" अर्थात् वस्तु ध्रुव रहते हुए उत्पाद-व्यय (पर्याय) करती हुई अपनी

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48