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निज मन्दिर पर १५७२ के पश्चात १६८६ वि० सं० में बाज जाति के काष्ठासंघो कोडिया भीमा के पुत्र जसवन्त ने कलश तथा ध्वजादण्ड चढाया था इसका प्रमाण १७३० में लिखे गये स्पष्ट लेख से प्राप्त है । इसके बाद वि० सं० १७६३ में फिर से ध्वजादण्ड चढाने का प्रमाण मिला है । जो निम्न प्रकार है :
संवत् १७६३ माह सुदि १ गुरुवार श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक सकल किर्ति तद् प्रान्नाए भट्टारक विजय काति त् शिष्य ब्रह्मनारायणोपदेशात् श्री सूरत वास्तव हूंबड जातीय लघु शाखायां सघवो श्री मनाहरदास मनजो सुत किशोरदास दयालदास, भगवानदास एवं श्री सूरत नगरादागत्य श्री ऋषभ देव कलश तथा ध्वजास्तम्भ सोडयो सं० मनाहरदास स्वपरिक श्री ऋषभदेव नित्य प्रणमति ।
वि० संवत १८६३ में मन्दिर का परकोटा बना उस समय प्रतिष्ठा हुई और ध्वजदण्ड चढाया ऐहा ज्ञात हाता है । तत्पश्चात प्रभो हो वि० सं० १९८४ में सेठ पुनमचन्दजी करमचन्दजी कोटा वाले पाटन (गुजरात) निवासो ने पांच हजार रूपया नकद भेंट करके ध्वजादण्ड चढाने का विफल प्रयास किया, तब इस उत्सव में महान विघ्न हुआ और वही विघ्न तीर्थ के इतिहास में
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