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जिन अभिमानी व्यक्तियों ने इस तीर्थ की अश्रद्धा की ओर चमत्कार जानना चाहा,वे चमत्कार देखकर नमस्तक हो लौट गये। उदाहरण के लिए वि० सं० १८६३ के लगभग "सदाशिवराव" डूगरपुर से गलियाकोट आदि गांवों को लूटकर धुलेव पाया। यहां आकर वह अभिमान पूर्वक मन्दिर में जा घुसा और नीचे को बेदी के पास खड़े रहकर श्री प्रभू के सामने रुपया फेकते हुए बोला, हे जैन का देव ? यदि तू सच्चा है तो मेरा फेंका हुग्रा रुपया स्वीकार करले। कहते है वह फेका हुआ रुपया वापस आया और उसके सिर पर इस प्रकार लगा कि खून टपकने लगा। फिर भी वह नही समझ सका और अपनी सेना को मन्दिर लूटने की आज्ञा दे दी। तब मन्दिर में से भंवरों की सेना टूट पड़ी। तब बडा दुःखी हुअा और बहुत सा सामान छोडकर भाग गया । इसके बाद कभी इस और आने का साहस नहीं किया यह प्रमाण एक दो भजन से मिलता है और यह बात इतिहास के अन्य साधनों से भी सत्य हैं । भजन की दो तीन पंक्तियां इस प्रकार है ।
सुनियेरे बातां राव सदाशिव, मत चढ जाना धुलेवा । गढपति उनका बडा अटङ्का, मत छेडो तुम उन देवा। गलियाकोट से निकल सदाशिव धुलेवा गढ घेर लिया। तोपखाना तो पड़ा रहा ने, राव सदाशिव भाग गया।
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