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The True History of shree Rishabhdee
श्री केश
देव तीर्थ
:लेखक : विद्यारत्न प० मोतीलाल मातण्ड (एम. ए.)
प्रा० संयोजक, जैन मिशन
ऋषभदेन, (राजस्थान) ( श्री 'ऋषभचरितसार आदि के रचियता )
प्रकाशक को सर्वहक स्वाधीन
शाह महावीरप्रसाद चंदनलालभवराजन
दसवी बार
१९८७
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केशरियाजी प्रागमन पर
हम आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं
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साभार निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक अतिशयक्षेत्र श्री केशरियाजी के संक्षिप्त इतिहास का चतुर्थ संस्कररण है । समयाभाव से मैं चाहते हुए भी अपेक्षित प्रमाण संग्रह नहीं कर सका ओर न भाषा शैली में सुधार किया है, तथापि सत्य-प्रतिपादन करने से संतोष है ।
तीर्थ के जिन विद्वान इतिहासकारों से इस पुस्तक में सहायता ली गई है एवं जिन्होंने परिमार्जित रुप से द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ संस्करण के लिये प्रेरणा दी थी, सबको साभार धन्यवाद देता हूं। शीघ्रता में त्रुटितां रह जाना सम्भव हो अतः क्षमा प्रार्थी भी हूं । तीर्थ के इतिहास - विद्वानों की दृष्टि में यदि अब भी संशोधन की आवश्यकता हो तो सूचित करने का कष्ट करें, जिससे आगे संस्करण में सुधार किया जा सके ।
"
श्री ऋषभचरित " की रचना में व्यस्त रहने से प्रस्तुत इतिहास संक्षिप्त ही लिख सका हूं तथा समयाभाव से चतुर्थ संस्करण भी वैसा ही प्रकाशित हो रहा है ।
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- लेखक
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-: विषय सूची :
१ साभार निवेदन
२ वन्दना
३ श्री केशरियाजी : एक परिचय
४ भ० ऋषभ की मनोजा प्रतिमा
५ तीर्थ का सुन्दर विशाल मन्दिर ६ धुलेव ग्राम का अभ्युदय ७ मन्दिर की प्रतिष्ठा व ध्वजादण्डारोहण ८ तीर्थ का चमत्कार
६ तीर्थ का वर्तमान रुप
विद्धानों की दृष्टि में क्षेत्रावलोकन ११ समालोचन
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॥ श्री॥ ऋषभ - वन्दना
सदम-सेतुसरणोंप्रतिपालनार्थ
नाभेनिकेतनमलंकृतवांजिनेन्द्रः । इन्द्रादिदेषविबुधैरभिषिक्तशीर्षों
मोक्षाप्रदोविजयतेऋषभादिदेवः ।।१।।
-चौपाई -
।
१॥
बंदउँ प्रभु-पद भव-भयहारी पुनि-मन-मनि सब विधि सुखकारी जग-भूपन जिन-धर्म-प्रकासी जगदाधार विमल-गुन-रासो। सुर सुरपति गावहिं प्रभुताई गुरु गनधर ध्यावहिं अधिकाई । निरसहिं निज उर सम्यकज्ञानी करत प्रनाम पापनिधि हानी अस चरनाम्बुज जनि उपकारी पुनि बंदउँ मन-ध्यान सम्हारी धरी उर भगति सहित गुनगाना वरमउं यह इतिहास सुहाना
॥२॥
॥३॥
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॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथाय नमः॥ श्री केशरियाजी ऋषभदेव तीर्थ का
- प्रमाणित इतिहास :
श्री केशरिया जी : एक परिचय अनन्तगुण सागरंशिवमनन्तमध्याकृतम् । अनन्तभवभन्जनंचिदमनन्तज्ञानप्रदम् । सुरासुरपदाचितप्रगतपारिजातद्रम । नमामिकरुणाकरंऋषभमाद्यतीर्थकरम् ॥१॥
भारत प्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र श्री केशरियाजी (ऋषभदेव) को कौन नहीं जानता ? युगादि जिन प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव के मंगलमय अतिशय से धुलेव ग्राम की भूमि को प्रसिद्धि प्राप्त करने का सौभाग्य प्रात्त हुमा है। यदि हम इस तीर्थ का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करें तो ज्ञात होगा कि मूलनायक भ. ऋषभदेव की चित्ताकर्षक वीतराग प्रतिमा प्रतिवप्राचीन हैं । डॉ. कामताप्रसादजी जैन के मतानुसार "यहां से एक मील दूर भगवान की चरणपादुकाएं हैं। वहीं से धुलिया भील के स्वप्न के अनुसार यह प्रतिमा जमीन से निकली थी। धुलिया भील के नाम के कारण यह गांव धुलेव कहलाता है।
__ अपनी प्राचीन शिल्पकला से सुसज्जित विशाल मन्दिर भ० केशरियाजी के दर्शनार्थ पाने वाले यात्रियों का मन मुग्ध कर लेता है । इसका का निर्माण हुमा ? इस विषय में प्राप्त
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प्रमाणों के आधार पर यह मन्दिर दूसरी शताब्दी में कच्ची ईटों का बना था। अथानन्तर पाठवी शताब्दी में पारेवा नामक पत्थरों से बना और पश्चात् सं. १४३१ में पुख्ता पत्थर का बनवाया गया इसका प्रमाण मन्दिर के खेला मण्डप में (उत्तरी दीवार में)लंगे सबसे प्राचीन शिलालेख से जीर्णोद्धार होना स्पष्ट है । जो कि इस प्रकार है :
'श्री आदिनाथ प्रणम्य लोक आश्वासिता केचन बित कार्याग्न मोक्ष मार्गे तमादिनार्थ प्रणमादि नित्य-मादित्य सं. १४३१ वर्षे वैशाख सुदी अक्षय तिथौ बुध दिनाः गुरावदेहा वापी कूप प्रसरि सरोवरालं कत पत्तने राज्य श्री विजयराज्य पालयन्ति सति उदयराज सेलया श्री मज्जिनेन्द्राराधन तत्पर पंचूली वागड प्रति यात्रा श्री काष्ठासंघ भट्टारक श्री धर्मकीति गुरोपदेशेन वाये साध बीजासुत हरदास
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भ्याम् श्री ऋषभेश्वर प्रासादस्य जिलोंद्धार श्री नाभिराजवरवंश कृतावतार कल्पद मामाह सेवनेषु.."
उक्त लेख से यह प्रमाणित होता हैं कि गर्भगृह शिखर तमा खेल मंडप विक्रम संवत् १४३१ में काष्ठासंघो भट्टारक धर्मकिति के उपदेश से शाहं हरदास और उनके पुत्र पुजा तथा किता ने जोरर्णोद्धार कराया। इससे स्पष्ठ हे कि सं० १४ ३१ के पुव भी पुराना मदिर था।
मन्दिर को नोचोकि तथा सभा मण्डप का निर्माण सं. १५७२ में दि० काष्ठासंघो वाच जाति के काश्यप गोत्रो कंडिया 'कोहिया' और उसको धमपत्नी भमरी के पुत्र हिसा' ने लगभग ८०० टका (उस समय को प्रचलित मुद्रा) व्यय करके बनवाया था। यह प्रमाण होला मण्डप की दक्षिणो दोवाल में लगे शिलालेख से स्पष्ट हैं । बावन जिनालयो का निर्माण उतरोतर हुमा हैं । क्योकि जिनालयों की प्रतिमाएं वि० सं० १६११ से १८८३ तक की है। मन्दिर का किलेनुमा कोट और सिंहद्वार मुल संघ के कमलेश्वर गोत्रीय गांधी श्री विजयचद जातो दिगम्बर जैन निवासी सागवाड़ा ने वि० सं० १८६३ में बनवाया था। इस प्रकार श्री केशरिया जी का विशाल मन्दिर वि० सं० १४३१ में जीर्णोद्वार होकर १८८६ तक बनता रहा। यदि जीर्णोद्वार के पूर्व ६०२ वर्ष पहले का पुराना मन्दिर, मानले तो भी यह तीर्थ प्राप्त प्रयारणों के माधार पर १२०० वर्ष पुराना अवश्य होना चाहिये।
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भ० ऋषभदेव की प्रतिमा के प्रकट होने पर इस क्षेत्र का अतिशय बढ़ने लगा और इसी अतिशय के कारण जिन मन्दिर का निर्माण हुआ । मूल मन्दिर दिगम्बर जैन ही है तथापि श्री केशरियाजी के अतिशय (चमत्कार) से सार्वजनिक दृष्टिकोण से भी विशेष महत्व है। तभी तो अोझाजो कहते हैं-हिन्दुस्तान भर में यही एक ऐसा मन्दिर हैं जहाँ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर जैन वेष्णव, शैब, भोल एवम् तमाम सशूद्र स्नान कर समान रुप से मुर्ति का पूजन करते हैं।"
तीर्थ के परम वोतराग-निर्ग्रन्थ-मूलनायक की पद्मासन विराजमान प्रतिमाजो पर अत्यधिक केशर चढ़ाने से भ० ऋषभदेव को केशरियाजी या केशरियानाथ भी कहते हैं
और धुलेव नगर भो केशरियाजी की संज्ञा से प्रसिद्ध हैं । इस • पावन भूमि पर प्रतिवर्ष सहस्त्रों नरनारी पाकर हृदयहारी प्रतिमा के दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं ।
ऋषभदेव का पुराना नाम धुलेन है । प्रारम्भ में धुलेव ग्राम के खडक प्रान्त के “जवास पट्ट में था । जवास-राव ने जब इसे श्री केशरियाजो को भेट कर दिया तब ग्राम कि व्यवस्था दि० काष्ठासंघ के भट्टारकों द्वारा होने लगी। तदुपरान्त बहुत समय के बाद औ० ब्राह्मणों को अवसर मिला और फिर किसी विशेष कारण से तिथ की देखभाल वि० स० १६३४ के लगभग उदयपुर के महाराणा द्वारा होने लगी श्री केशरित्राजी का मन्दिर (तोर्थ) “सेल्फ सपोर्टिग" माना गया हैं । इस समय का तीथ का संरक्षण राजस्थान सरकार के अन्तर्गत देवस्थान विभाग द्वारा एक ट्रस्टी के रुप में हो रहा है । यह ट्रस्ट जैन समाज के प्रति पूर्णतः उत्तरदायी है ।
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ऋषभदेव-तीर्थ भारत के पश्चिम भाग में स्थित राजस्थान प्रान्त दक्षिरिण भाग में उदयपुर से ६५ की.मो. दुर एक पहाड़ी पर जो " कुमारिका" या " कोयल" मदो से वेष्ठित शुशोभित हो रहा है, गाँव का विकास मन्दिर जी के प्रागे हमा है । अतः ऐसा प्रतोत होता है मानो तीर्थ की वन्दना कर रहा हो इस तोर्थ भूमि पर यात्रियों को सुविधार्थ तीन धर्मशालाए बनी हुई हैं । यातायात, रोशनी, जल मादि का समुचित प्रबन्ध हैं । बिजली, तार-टेलीफोन, नल, प्रा० स्वास्थ्य केन्द्र, उच्च विद्यालय, छात्राश्रम, विश्व जैन मिशन केन्द्र, पुलिस थाना, विकास पंचायत आदि होने से यह गांव एक सुन्दर कस्बा बन गया है। यहां पगल्याजो, चन्द्रगिरि, सूरज कुण्ड, भीम पगल्याजी, कोयल घाट, यश किति भवन आदि स्थान दर्शनोय है ।
__ यह तीर्थ अपने चमत्कारों के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है । दर्शनार्थ पाने वाले यात्रियों की मान्यता रही है कि भगवान की "मानता" लेने से कार्य सिद्ध होते है। चैत्र कृष्णा अष्टमी व नवमी को भगवान ऋषभनाथ के जन्म दिवस पर मेले का आयोजन होता हैं तब सहस्त्रों नरनारी यहां आकर भगवान के दर्शन का लाभ लेते हैं । यह तीर्थ दिगम्बर जैन होते हुए भी सर्व मान्य रहा है, यह मन्यतम विशेषता है। विस्तृत वर्णन पृथक से मागे के अध्यायों में करेंगे।
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-२
तीर्थ के मुलनायक भगवान ऋषभदेव की मनोज्ञ प्रतिमा
आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव सातिशय चित्ताकर्षक परम वीतराग दि० प्रतिमा श्रतीव प्राचीन है। प्रतिमा जी पर किसी भी प्रकार का लेख या चिह्न नही है, हो सकता है यह प्रतिमा उस प्राचीन काल को हो, जबकि लोगो में शिलालेख लिखने का रिवाज नही था । यह भी हो सकता है, लेख अब तक मिट गया हो। प्रतिमाजी की प्रचीनता का पता ध्यान पूर्वक देखने से समझ में आ सकता है, लेख मिट जाना तो स्वभाविक है किन्तु प्रायः प्रति प्राचीन प्रतिमाओं के लेख नहो मिलते। कुछ भी हो प्रतिमा के विषय में तोर्थ के सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि प्रतोव प्राचीन है ।
भ० ऋषभदेव की मान्यता [ मूर्ति-पूजा के रुप में भी ] बहुत प्राचीन काल से हैं। भारत में ही नहीं वरन विदेशों में भो प्रचोन मूर्तियां मिली है । मिश्र में दस हजार वर्ष पुरानो ऋषभदेव की मूर्ति मिली हैं । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कतिपय ऐसे प्रमाण उपलब्ध है जिनके आधार पर यह निश्चय होता है कि यह प्रतिमा चतुर्थ काल की है । इस क्षेत्र पर भूगर्भ से यह प्रतिमाजी के प्रकट होने पर ही तोर्थ का उत्तरोत्तर अतिशय बढा और शनैः शनैः इतने विशाल जिनालय का निर्मारण हुआ । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह तीर्थ लगभग १२०० वर्षं
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-१०
पुराना होना अनुमान करते हैं । इससे स्पष्ट है कि प्रतिमाजी इससे भी अतीव प्राचीन है ।
प्रतिमाजी की प्राचीनता के विषय में तो सभी एक मत है किन्तु इस क्षेत्र पर प्रकट होने के अनेक मनगड़न्त प्रमाण मिलते हैं जो कि इतिहास की पृष्ट भूमि पर सत्य प्रमाणित नहीं होते । जैसे कि :
(१) लंका से श्री रामचन्द्र जी द्वारा भ० ऋषभदेव (केश)
को प्रतिमा अयोध्या लाना और फिर उज्जैन पश्चात डुगरपुर राज्यातर्गत बडौदा गामको प्राप्त होना अनन्तर देवप्रयोग से धुलेवके नजदीक 'पगला' की जमीन में विराजमान रहना और फिर प्रकट होना आदि ।
(२) प्रतिमाजी को ब्राह्मण लाया, लपसी (सीरे) में रखी
आदि-आदि ।
भली प्रकार विचार करने से यह प्रमाण ही सत्य प्रतीत होता है कि चांदनपुर महावोर एवम् बाड़ा पद्मप्रभू की भांति भगवान ऋषभ स्वामी की यह प्रतिमा भी धुलिया भोल द्वारा अपनी गाय के दूध झरने के द्रश्य को देखकर उसके स्वप्नानुसार भूगर्भ से प्रकट हुई है जैसा कि इस विषय में बाबू कामताप्रसादजी ने जैन तीर्थ ओर उनकी यात्रा पुस्तक के पृष्ठ १११ पर ठीक ही लिखा है :
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यहां से एक मील दूर भगवान की चरण पादुकाएं है । वहां से धुलिया भील के स्वपन अनुसार यह प्रतिमा जमीन से निकली थी । धुलिया भील के नाम के कारण यह गांव धुलेव क. लाता है ।
बाबूजी का यह मत प्राप्त प्रमाणों में विशेष मान्य है सत्य है । गाय के दुध झरने का कथन भी सत्य माना जा सकता है । प्रतिमाजो के प्रकट होने के उपरांत सातिशय चित्ताकर्षक देखकर छोटे से जिनालय में विराजमान की और बाद में भट्टारकों के उपदेश दानी श्रावकों ने क्रम से इतने बड़े मन्दिर का निर्माण कराया है । ऐसा प्रास्त शिलालेखों से प्रमाणित होता है। प्रतिमाजी की प्रतीव प्राचीनता के विषय में सभी इतिहासकार सहमत है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
इस समय मन्दिर में विराजमान प्रतिमा
निज मन्दिर में आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव की सातिशय चतुर्थकालीन दि० प्रतिमाजी लगभग १ फुट ऊंचे पावासरण पर विराजमान हैं जिसमें नीचे ही मध्यभाग में दो बैलो के वोच देवो तथा उस पर हाथी, सिंह, देव आदि सर्व धातु के बने हुए हैं । उस पर १६ स्वपन अङ्कित किये हुए है, जिनके ऊपर छोडेर नव जिन प्रतिमाएजी है जिन्हें इस समय लोग नवदेव कहते हैं । मूलनायक के माजु बाजु तथा
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-१२
उपरी भाग में सर्व धातु का अन्य तेईस तीर्थङ्करों को प्रति माएं सहित भव्य सिंहासन है । इस प्रकार परिकर में एक साथ चौबास तार्थङ्करों क दर्शन होते हैं। भ० आदिनाथ के दोनों ओर खड्गासन लगाये दो तोर्थङ्करों का प्रतिमाओं के परम वातरोग निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) अवस्था में दर्शन होते है सबके मध्य श्यामवर्ण पद्मासन लगभग तोन फोट उतंग भ० ऋषभदेव के उपर तीन छत्र (एक साथ जुडे हुए)तान लोकों का स्वामोपना प्रकट करते हैं । प्रभु के पोछे प्रखर तेजस्वी सभामण्डप सुशोभित होता है । दानों दिशाओं में एक-एक अखण्ड ज्याति के प्रकाश में अनुपम ज्योति स्वरुप अरहत अवस्था में धर्म सभा के मध्य विराजमान से जगत पूज्य ऋषभ स्वामो के मनोहर दर्शन होते हैं ।
सिंहासन को छोड़कर सारा गर्भगृह तथा गर्भगृह का द्वार चांदी से मढ़ा हूंा है अत्यन्त मनोहर गर्भगृह में भ० ऋषभनाथ का रुप देखते ही बनता है । प्रतिमाजी पर अत्यधिक केशर चढ़ने से भ० ऋषभदेव को केशरिया या 'केशरियानाथजो' भो कहते है और अब तो धुलेव नगरी भो केशरियाजी से सम्बन्धित की जाती है । प्रतिमाजी काले पाषाण की होने से आदिवासी भील भाई इन्हे 'काराजी' केशरिया बाबा' कहते हैं कुछ लोग तो भक्तिवशात् "धुलेवा धणो" और "केरियालाल के नाम से जयध्वनि करते हैं। इस प्रकार अनेक व्यक्ति कई प्रकार से भनवाग की भक्ति कर आन्नद का अनुभव करते हैं प्रतिमाजी का अतिशय अथवा तीर्थ के चमत्कार का वर्णन आगे करेंगे ।
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-६तीर्थ का सुन्दर विशाल मन्दिर
अपनी प्राचीन शिल्प कलासे सुसज्जित विशाल मन्दिर भ० केशरियाजी के दर्शनार्थ आने वाले मनुष्यों का मन मुग्ध कर लेता है। प्रादि ब्रह्मा भ० ऋषभदेव के अतिशय से ही इस मन्दिर ने साधारण जिनालय से विशाल रमणीय मन्दिर का रुप पाया है। अपनी प्रारम्भिक अवस्था में यह मन्दिर केसा था? इस विषय में जैन प्रभात मासिक वीर सं० २४४१ अंक ८ पृष्ठ ४०५ पर वर्णन हैं कि शिलालेखों से पता चलता हैं कि यह मन्दिर संवत् २(दूसरी शताब्दी) में कच्ची ईटों का बना था । बाद आठवीं शताब्दी में पारेवा नाम के पत्थर का बना और (पश्चात् सं० १४३१ में पुख्ता पत्थर का बनवाया गया आदि । किन्तु दूसरी शताब्दी में मन्दिर होने का कोई शिलालेख प्राप्त नहीं हुआ है । तथापि मन्दिर के खेला मण्डप में सबसे प्राचीन वि० सं० १४३१ का शिलालेख लगा हुआ है जिसमें मन्दिर का जीर्णोद्धार का स्पष्ट वर्णन है । जिससे यह प्रमाणित होता है कि स० १४३१ के पूर्व भी पुराना मन्दिर था । कहा जाता है की भगवान की प्रतिमा इस क्षेत्र पर प्रकट होने पर सर्व प्रथम ईटों का मन्दिर बनवाया गया था तत्पश्चात उस जिना लय के टूट जाने पर जोर्णोद्धार रुप पाषाण का यह नया मन्दिर भिन्न-२ विभागों से अलग-२ समय में बनकर तैयार हुआ है । इसके प्रमाण में खेला मण्डप का दूसरा शिलालेख तथा प्रतिमाओं पर लिखे गये लेखों से वर्णन मिलता है ।
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-१४-
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निज मन्दिर में जगत पूज्य परम दिगम्बर भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा बिराजमान हैं उस गर्भगृह के ऊपर विशाल शिखर है । गर्भगृह के बाहर खेलामण्डप की दिवालों मे आमने सामने दो शिलालेख है । जिनमें बाई तरफ सं० १४३१ का एक लेख अङ्कित है वह इस प्रकार है :
" श्री आदिनाथ प्रणम्य लोक आश्वासिता केचन बित कार्याडन मोक्ष मार्गे तमादिनार्थ प्रणमादि नित्यमादित्य सं० १४३१ वर्षे वैशाख सुदी अक्षय तिथौ बुध दिनाः गुरावदेहा वापी कुप प्रसरि सरोवरालंकृत खेडवाला पत्तने राज्य श्री विजय राज्य पालयन्ति सति उदयराज सेलया श्री मज्जिनेन्द्राराधन तत्पर पंचूली वागड़ प्रतियात्रा श्री काटठासंघे भट्टारक श्री धर्मकिति गुरोपदेशेन वाये साध वीजासुत हरदास
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-१५
भार्या हारू तदपत्योः सः पुंरंजा कोता श्री ऋषभेश्वर प्रासादस्य जीर्णो
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याम्
द्वार श्री नाभिरांजवरवंश कृतावतार
....................................................99
कल्पद्र ुमा
"माह सेवनेषु
..........................................00
उक्त लेख से प्रमाणित होता है कि गर्भगृह शिखर तथा खेला मण्डप विक्रम सं० १४३१ में काष्ठासंघो भट्टारक धर्मकीर्ति के उपदेश से शाह हरदास एवं उसके पुत्र पुंजा तथा कोता ने जिर्णोद्धार कराया । इससे यह भी स्पष्ट सिद्ध होता है कि सं० १४३१ के पहले पूराना मन्दिर या जिनालय अवश्य था । यदि जिर्णोद्धार से पूर्व ६०० वर्ष पहले का पूराना मंदिर मान ले तो यह तोर्थ १२०० वर्ष पुराना तो अवश्य होना चाहिये ।
खेला मण्डप में उत्तर दिशा में दाई ओर लगे दूसरे शिलालेख से मंदिर को नौचौको तथा सभा मण्डप के निर्माण होने का प्रमाण मिलता जो कि इस प्रकार है ।
..... .................
"लोका आश्वासितां केचन आदिनाथ प्रणमामि नित्यं विक्रमादित्य संवत् १५७२ वर्षे वैशाख सुदी ५ वार सोमे भट्टारक श्री यशकिर्ति राज्ये श्री कला भार्या सोनबाई बिजिराज इदा.......धुलीय ग्रामे श्री ऋषभनाथ प्रणम्य: कांडया कोहिया भार्या भरमी तस्य पुत्र हीसा भार्या हिलसदे तस्य पुत्र कान्हा
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देवरा रंगा भ्रात वेणदास भार्या लाछो म्रात साबा भार्या पांची सुत नाथा नरपाल श्री काष्ठासंघे वाच न्याते काश्यप गौत्रे कडिया हिसा मण्डपः नव चौकियों सनी बड़ पुत्तला सहस टंका सी ८०० इटड़ी कय्यः श्री ऋषभजो श्री नाभिराज कुख पुजः
उक्त लेख से यह प्रमाणित होता है कि खेला मण्डप से बाहर आने पर नोचौकी तथा सभा मण्डप विक्रम सवत् १५७२ में काष्ठासंघी वाच जाति के काश्यप गोत्रा कडिया कोहिया और उसकी पत्नी, भरमी, के पुत्र हीसा ने लगभग ८०० टंका (उस समय को प्रचलित मुद्रा) खर्च करके बनवाये थे।
इन दोनों शिलालेखों से यह स्पष्ट प्रमाण मिलता है की गर्भगृह तथा उसके आगे का खेला मण्डप (निज मन्दिर) वि० सं० १४३१ में और नौचौकि तथा सभा मण्डप १५७२ में बने हैं । खेला मण्डप में इस समय २३ जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं । उत्तर दक्षिण दिशा में लिखे हुए शिलालेखों के नीचे सिंहासन सहित श्यामवर्ण की जो जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं, उन्हे "पंच परमेष्ठी" कहते हैं। 'पच परमेष्ठो, के मुलनायक के दोनों ओर खड़ी मूर्तियां दिगम्बरत्व की द्योतक दर्शनीय है । मण्डप पर गुम्बज बना हुआ है नौचौकी मण्डप के मध्य भाग में १॥ फिट ऊंची वेदी बनी हुई। उसके दक्षिरण स्तम्भ पर श्री क्षेत्रपालजी की मूर्ति है तथा पास ही देश दिग्पालों का स्तम्भ हैं ।
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•
-१७
मूल जिनालय के प्रथम प्रवेशद्वार पर भ. पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। नौचोका के सामने सभा मण्डप है जिसमें छोटो सो वेदो बनो हुई है जिस पर मण्डप को रचना कर पूजन आदि पढ़ते हैं । रात्रि के समय मुख्य- २ प्रसंगों पर विशेष प्रकार की सजावट जमाकर भक्त लोग गाते हैं । मण्डप के दक्षिण भाग में श्रीमद्भागवत" लिखा हुआ एक प्रासन का चबूतरा हैं । वि० संवत् १९६६ के पहले यह स्थान माथुर सघी दि० भट्टारकों के शास्त्र पढ़ने को गद्दो के रुप में था । तत्पश्चात मन्दिर के हाकिम श्री तख्तसिंहजा ने मरम्मत कराने के बहाने भाद्र मास की एक ही रात में उस प्रकार का परिवर्तन कर दिया है ।
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निज मन्दिर के चारों ओर ५२ जिनालय है । जिनमें सभी निग्रन्थ वीतराग जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं इन जिना लयों के मध्य में ऊत्तर, दक्षिण और पश्चिम में एक-२ मण्डप सहित मन्दिर बना है, जिन पर सुन्दर शिखर बने हुए हैं । जिनमें केशयुक्त ध्यानस्था भ० आदिनाथ की मूल मूर्तियां विराजमान हैं । इन सब जिनालयों में फिर कर दर्शन - स्तवन करते हुए निज मन्दिर की परिक्रमा भी हो जाता है । इन्हो जिनालयों में पश्चिम की पक्ति में श्याम पाषाण का ६ फुट से ऊँचा एक स्तम्भ है जिस पर १००० जिन प्रतिमाएं विद्य मान है । अत: इसे सहस्त्रकूट चैत्यालय कहते हैं । पूर्व में निज मन्दिर के सामने ठीक बोचोबोच एक मध्यम कद का हाथी है जिस पर
सं. १७११ वर्षे वैशाख सुदी ३ सोमे श्री
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मूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कार गणे श्री कुंद कुंद भट्टारक 'गुरुपदेशात् लेख अङ्कित है। हाथो पर एक गुम्बद बना हुआ है। हाथी के दोनों ओर चरणपादुकाएँ स्थापित है, जिसके नाचे चमर धारी इन्द्र खडे हैं।
जिनालयों का निर्माण निज मन्दिर के बाद थोडा २ उत्तरोत्तर हुआ है । बावन जिनालय की प्रतिमाएं विक्रम स. १६११ से लगाकर १८८३ तक की हैं । प्रतिमा लेखों से ज्ञात होता है ये जिनालय वि० स० १६११ के पूर्व ही बनने प्रारम्भ हो गये थे। प्रतिमाओं पर लिखे गये लेख में से कुछ निम्न प्रकार है :(१) दक्षिण के मण्डप सहित मन्दिर के पास बाई ओर प्रथम जिनालय में भगवान आनिनाथ को प्रातमा विराजमान है। जिस पर लिखा है :
श्री काष्ठासंघे आदिनाथ प्रतिमा सं० १७५४ वर्षे पोस मासे कृष्णपक्षे पंचम्यां तिथो बुध वासरेधुलेव ग्रामे श्री काष्ठासंघे नदी तट गच्छेविद्यागणे भट्टारक श्री राम सेनान्वये तदनुक्रमेण भ० राजकोति तत्पट्टे भ० लक्ष्मी सेनतत्पट्टे भ० इंदुभूषण तत्पट्टे भ० सुरेन्द्रकीर्ति उपदेशात् प्रतिष्ठितं । हुबड़ जाति बड शाखायी विश्वेश्वरे गोत्रे...।"
यही लेख उसी जिनालय को दोवाल पर लगी हुई पाटो पर भी अङ्कित है।
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-१६
(२) पश्चिम में सहस्त्रकूट चैत्यालय के पास जिनालय में भ० शान्तिनाथ को प्रतिमाजी पर निम्न लेख भङ्कित है :
"संवत् १७६६ ना चैत्र वदी ५ वार चन्द्रे श्रीमत् काष्ठासंघे नदी तट गच्छ विद्यागणे भट्टारक श्रीराम सेनान्वये तदनुक्रमेण भट्टारक श्री राजकोति तदनुक्रमेण भ० श्री सुमतीकीति तत् अनुक्रमेण हबर न्या तीत बुध गोत्र संधबी श्री रामजी भार्या सिद्वरदेधर्मार्थ श्रीशान्तिनाथ बिबं प्राचार्य श्री प्रताप कीर्ति स्वहस्तेन प्रतिष्ठापित ॥ श्री ।।
(३) पश्चिम में मण्डप सहित मन्दिर के पास भगवान वासु पूज्य की प्रतिमा पर लिखा है :
" संवत् १७६८ वर्षे मगसीर मासे विद्यागणे कन्दकुन्दाचार्यान्वयं भट्टारक श्री सकल कीर्ति स्त्तदन्वये भट्टारक श्री क्षेम कीति तत्पपट्टे भ० नरेन्द्र कीर्ति गुरुपदेशात सुरत वासी गाम मह प्रावॉ सिलाऽज्ञाति साहा दादा मनजी श्रीवासुपूज्य नित्य प्रणमति ।।१।।
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-२०-
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(४) दक्षिण दिशा के जिनालयों में खण्डित प्रतिमा (जिसका एक पांव खण्डित है) पर १६११ वर्षे श्री मूलसंघे तथा उत्तर के जिनालयों में प्रतिमा पर “संब त् १६१२ वर्षे मूलसंघे' लिखा है -
इन लेखो से यह प्रमारिणत होता हैं कि भ० कुन्द कुन्दाचार्य के अनुयायो मूलसंघी एवं रामसेनाचाय के काष्ठासपो भट्टारकों द्वारा श्रद्धालु श्रावकों ने समय-२ पर प्रतिमाएं प्रतिष्ठत करा कर जिनालयों में विराजमान कराई थी। दक्षिण के जिनालयों के मध्य में मण्डप सहित जो मन्दिर हैं उसके द्वार के समीप दीवाल में लगे हुए शिलालेख से ज्ञात होता हैं कि दिगम्बर काष्टासंघ के नदी तट गच्छ विद्यागण के भट्टारक श्री सूरेन्द्र कोति के समय में बगेरवाला जाति के गोबाल गोत्री संघवी आल्हा के सुपुत्र भोज के कुटुम्बियों ने यह मन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा महोत्सव किया । इस मन्दिर के पास एक कोठरी है जिसमें उपकरण रखे जाते है किसो समय भट्टारकजो के रहने के उपयोग में आतो थो । उसके सामने मण्डप में भट्टारक को गादो है जिस पर अब भी भट्टारक बैठ कर शास्त्र पढते हैं । तथा काच का एक लघु चत्यालय भी दि० जैन समाज का उस पर रक्खा हुआ है । इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बर जैन भट्टारकों ने इस विशाल मन्दिर के निर्माण का कार्य कराया है और येही वास्तविक संरक्षक रहे थे।
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उन्हीं के उपदेशों से मन्दिर के अलग २ विभाग समय २ पर बने थे। उत्तर के जिनालयों के मध्य में जो मन्दिर है। वहां भी मूलसंघ भट्टारकों की गादो बनी हुई है। ऐसा ज्ञात होता है कि मन्दिर का उत्तरी भाग मूलसंघी तथा दक्षिणी भाग काष्ठासंघी भट्टारकों के अधिकार में था। इस समय उत्तर के मन्दिर के अग्रभाग में एक और केशर बिसने के 'पोरसिया' बने हुए है, जिनमें काफी केशर घिसी जाती है। दूसरी और
आगे पर मन्दिरजी का प्राचीन भंडार है । मुख्य मन्दिर से दम सीढियां उतरने पर दो ताकों में विराजमान पदमावतीदेवी और चक्रेश्वरी देवी के दर्शन होते है । प्रवेश द्वार से बाहर आने पर काले पत्थर के दोनों प्रोर खडे दो हाथी दिखाई देते है।
समस्त जिनालयों को घेरता हा जो मन्दिर का बाहरी भाग है, यद्यपि साधरण पत्थर का है तथापि वह भूमि से लेकर शिखरों तक अधिकांश स्थानों पर कूरा हसा है और उसमें स्थान २ पर सुन्दरता पूर्वक जिन प्रतिमाएं (खड्गासन) निर्मित है जो छोटे २ टोकों के मध्य विराजमान है चारों दिशाओं में उतंग चार शिखर तथा छोटे २ अनेक शिखर हैं । मध्य शिखर, जो कि मूलनायक पर बना है ध्वजा सहित मन्दिर की शोभा बढाता है। मूल मन्दिर के आगे तीन खण्ड का प्रवेश द्वार शिल्प कला से सजा हुआ है । समूचा भवन स्थापत्य कला का एक सुन्दर नमूना है । परिक्रमार्थ नीचे पत्थर जड़े हुए है। इस परिक्रमार्थ को वेष्ठित करती हुई और भी इमारते बनी हुई हैं।
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दक्षिण की अोर सामने हो एक तरफ स्नानघर जाने के मार्ग में भ० पाशर्वनाथजी का मन्दिर है, जिसकी प्रतिष्ठा १८०१ में हुई थी उसमें मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की लगभग ४ फोट उतंग पद्मासन विराजमान सुन्दर श्याम वरणं पाषाण की प्रतिमा है । प्रतिमा पर सहस्त्रफण फैलाये धरणेन्द्रदेव नाग रुप में छत छाया किये हुए हैं अतः इस प्रतिमा को,, सहस्त्रफणी पार्श्वनाथ कहते हैं । मन्दिर में रंगोन टाईलें जड़ो हुई हैं। (भ० पार्श्वनाथ के मन्दिर में ध्यानस्त दि० सप्तऋषियों की प्रतिमा दर्शनीय है) उसके आगे स्नान घर की तरफ जाने का मार्ग है मार्ग में विश्राम स्थलऔर फिर आगे कूप उसी के पास भक्तजनो के स्नान करने का स्थान है । मुल मन्दिर के ठीक पीछे कोट में एक द्वार बना है उसमें से महाराणा सा० प्रवेश कर फीर एक छोटे द्वार में होकर दर्शनार्थ आते थे । उसके मागे जाने पर मन्दिर के उत्तरी भाग में मन्दिर के निरीक्षक एवम अन्य कर्मचारियों के कार्यालय बने है । ये कार्यालय १८७३ में कोट बनने के पश्चात बनाये गये है । इसके प्रागे एक ओर एक कोठरी हैं जिसमें मेला आदि अवसरों पर काम पाने वाला सामान रहता है
___ मन्दिर के चारों और पक्का कोट बना हुआ है । उत्तर दिशा में कोट के अन्दर लगे हए शिलालेख से ज्ञात होता है की मुलसंघ के बलात्कारगण के कमलेश्वर गोत्रीय गांधी श्रीविजयचन्द सागवाड़ा जाति दिगम्बर जैन ने वि० सं० १८६३ में बनवाया था ।
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श्री केशरियाजी के मन्दिर का मुख्य द्वार तीन खण्डो वाला है मानों यह बता रहा है कि भ० ऋषभदेव तीनों लोकों के स्वामी है । द्वार के दोनों ओर एक-एक छतरी स्वर्ण कलशों से सुसज्जित बनी हुई है । द्वार के प्रवेश करने पर दोनों ओर एक-एक पाषाण का हाथी खड़ा दिखाई देता है द्वार पर नौबतखाना बना है, जो कि कोट के साथ ही जुडा हुआ है । इसका निर्माण भी १८६३ में हो गया था।
-: निष्कर्ष के रुप में:
केशरियाजी का विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर वि० सं० १४३१ में जीर्णोद्धत होकर १८८९ तक बनता रहा इसके पूर्व ईटों का साधारण जिनालय था, जिसे जीर्णोद्धार के पूर्व ५०० वर्ष से कुछ अधिक प्राचीन मानलें तो यह मन्दिर १२०० वर्ष पुराना प्रमाणित होता है ।
यह मन्दिर वैज्ञानिका ढंग में उत्तम कलाकारों द्वारा निर्मित हुआ है । पूर्व दिशा में उदय होते हुए भगवान भास्कर (सूर्य) की देदीप्यमान किरणें मूलनायक श्री ऋषभदेव के चरण कमलों की वन्दना करती जान पड़ती हैं । प्रातः सूर्य देव अपने स्वामी के दर्शन कर दिन का कार्यक्रम प्रारम्भ करता है । यह मन्दिर इस प्रकार का बना है कि नीचे प्रथम द्वार के बाहर से ही दर्शन होते हैं । इस प्रकार जो व्यक्ति नीचे से ही दर्शन करना चाहें, वे तीर्थ के अधिपति
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श्री केशरियाजी के सुखप्रद दर्शन का लाभ ले सकते है । भ० ऋषभदेव के अतिशय की कोति को चिरस्थाई रखने को प्रतिष्ठाचार्यों ने मूलनायक सहित चारों दिशाओं में भ० आदिनाथ को ही मूल प्रतिमाएं विराजमान की हैं । सभी प्रतिमाएं केशर युक्त ध्यानस्थ हैं । यह तीर्थ की एक विशेषता है वैसे भ० ऋषभनाथ को जहां भी मूर्तियां मिली हैं वै सब जटा-जुट युक्त केशो हौ चित्रित है । ये तीनों मुर्तियां भी ऐसी हो है जिनके कन्धों पर जटाये लहराती निखाउ गई हैं । क्योंकि प्राचीनकाल में ऋषभदेव की मूर्तियां जटायें सहित ही बनाई जाती थी । मूलनायक भगवान केशरियाजी की प्रतिमा पर भी लहराते केश दिखाई देते है किन्तु अतीव प्राचीन होने से कुछ मिट से गये हैं भगवान ऋषभ की सातिशय प्रतिमा नीस्सन्देह दिगम्बर जैन ही हैं जोकि ध्यान की प्रेरणा देती हुई दर्शकों का चित्त अनायास आकर्षित करती है ।
अखिल भारत में एक ऐसा मन्दिर है जिनका"समता में कोई भी मन्दिर नहीं है जो कि अपने ढग का निराला ही है
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धुलेव ग्राम का अभ्युदय
युगादि जिन भगवान ऋषभदेव की अति मनोज्ञ प्रतिमाजी के प्रकट होने पर एक छोटा सा पाल खेडा में साधारण जिनालय पयवाया गया । बाग में अतिशय के प्रभाव से विशाल मन्दिर का क्रम-क्रम शनैः-शनैः निर्माण हुआ । अतः धुलाया गमेतो के नाम की बस्ती का नाम धुलेव पडा । वह बस्ती उत्तरोत्तर बढ़ने लगी और बढते २ एक सुन्दर गांव बन गया। प्रारम्भ में यह वस्ती मन्दिरजी के उत्तर पश्चिम में थी तीर्थ के चमत्कारों से यात्रीगण माने लगे। तब बस्ती का मन्दिर के मागे विकास होने लगा । इस समय जो सूरजपोल का दरवाजा है, वह बस्ती के शहर कोट का अन्तिम दरवाजा था। होली चौक जहां यशकीर्ति भवन बना हुआ है, उस समय गांव का श्मशान माना जाता था। काल क्रम से भगवान ऋषभदेव के तीर्थ का चमत्कार विशेषत: बढने लगा । अतः आसपास के गांवों के महाजन मौर ब्राह्मण आदि लोग पाकर इस
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पावन भूमी पर बसने लगे। धुलेव ग्राम का विकास सूरजपोल द्वार से बाहर बड़ने लगा । और एक अच्छे से गाँव के रुप में दिखाई देने लगा।
गाँव का विकास 'कोयल' या वारिका नदी है वेष्ठित ऊँची पहाडी पर हुआ है । दर्शनार्थं आने वाले यात्रियों के लिये मन्दिर के पास में एक धर्मशाला बनवाई गई जिसे आजकल "जूना नोहरा". कहते है । गांव के विकास के साथ-२ दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों में से दानी सज्जनों ने धर्मशाला के विस्तार में योग दिया। फल स्वरुप तोन चार धर्मशालाएँ बन गई । आज इन धर्मशाओं में यात्रियों के लिये सब प्रकार की सुविधाएँ बनी हुई हैं । आज तीर्थ की प्रगती होने से धुलेव गांव ने एक छोटे से कस्बे का रुप धारण किया। भगवान ऋषभदेव स्वामी का तीर्थ होने से गांव का नाम ऋषभदेव प्रसिद्ध हुआ। पोस्ट प्रांफिस में (रखबदेव) कहा जाता है । भगवान की प्रतिमा पर अधिक केशर चढने से बाद में गांव का नाम केशरियाजी भी कहा जाने लगा ।आजकल धुलेव ग्राम को केशरियाजी या ऋषभदेव कहते हैं ।
प्रारम्भ में धुलेव ग्राम स्वडक प्रान्त के जवास पटटे में था । बाद में जवास राव द्वारा केशरियाजी को भेंट कर देने से इसकी व्यवस्था काष्ठासघो के भट्टारकों द्वारा होने लगो। तत्पश्चात बहुत समय के बाद किसी कारणवंश यह व्यवस्था प्रौदीच्य जाति के ब्राह्मणो को मिली जो कि भण्डारी कहे जाते लगे । तदुपरांत किन्हीं विशेष कारणों से तीर्थ की देखभाल संवत् १९३२से उदयपुर [मेवाड़ के संरक्षण में चली गई । अतः मेवाड़ सरकार की एक कमेटी
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ट्रस्टी के रूप में इसका प्रबन्ध करने लगी । यही व्यवस्था राज्य के रुप में चलती हुई इस समय राजस्थान सरकार के देवस्थान विभाग द्वारा हो रही है । फलस्वरुप यह मन्दिर सेल्फ सपोर्टिंग ( श्रात्म निर्भर) माना गया है । यदि जैन समाज संगठित होकर प्रयत्न करे तो मन्दिर समाज को सुव्यस्था में आ सकता है, क्योंकि यह जैन मन्दिर है। देवस्थान जो कि ट्रस्टो की हैसियत से तीर्थ का संरक्षण कर रही है, जैन समाज के प्रति पूर्णतः उत्तरदायी है ।
ऋषभदेव का तीर्थ भारत के पश्चिमी भाग में स्थिति राजस्थान प्रान्त के दक्षिणी भाग में उदयपुर नगर से ४१ माइल दूर एक ऊंची पहाडी पर कुंवारिका नदी से वेष्ठित सुशोभित हो रहा हैं। गांव का विकास मन्दिर के प्रागे हुआ हैं । अतः बारा गांव तीर्थं की वन्दना करता हुआ सा प्रतीत होता हैं इस क्षेत्र पर सहस्त्रों यात्री प्रति वर्ष दर्शनार्थ आया करते हैं, अतः उनकी सुविधा के लिये तीन धर्मशालाएं बनी हुई हैं। गांव में पानी का यथेष्ट प्रबन्ध हैं। यात्रियों की सुविधा के लिए यातायत की भी सुव्यवस्थित प्रबन्ध हैं ।
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दिन में कई मोटरें विभिन्न मार्गो से ऋषभदेव प्राती जाती है । जमेर से अहमदाबाद तक राष्ट्रीय मार्ग उच्च सड़क जाती है जो कि देहली से भी सम्बन्ध रखती है, ऋसभदेव इस मार्ग में माता है । अतः अजमेर और उदयपुर से यात्री रास्ते से आ जा सकते हैं । अहमदाबाद से रतनपुर होते हुए इसी मार्ग द्वारा ऋषभदेव प्राया जाता है। दूसरा मार्ग डूंगरपुर से ऋषभदेव का है यह भी पक्की सड़क है, जो कि उदयपुर से डुंगरपूर तक बनी हुई है और प्रति दिन मोटरे प्राती जाती है । तीसरा मार्ग ईडर से विजयनगर होकर ऋषभदेव आता है । यह रास्ता कक्ची सडक का है । अतः वर्षा काल में बन्द रहता है । चौथा मार्ग ऋषभदेव से सलुम्बर की तरफ हैं । पांचवा मार्ग ऋषभदेव से चावण्ड सराडा होकर उदयपुर जाता है । इस प्रकार चारों ओर छोटे मोटे रास्ते बने हुए है उदयपुर अहमदाबाद तक रेल्वे लाइन है । जिससे से केशरियाजो रेल द्वारा भी प्राया जा सकता है । इस प्रकार ऋषभदेव थाने में पर्याप्त सुविधा है ।
तीर्थ क्षेत्र पर आधुनिक युग को वैज्ञानिक सुविधाएं पर्याप्त है। गांव में बिजली तार टेलोफोन, नल. पी. एच.सी. ( श्रौषधालय ) प्रायुर्वेदिक दवाखाना, हाई स्कूल, पुलिस थाना विकास पंचायत आदि भी है ।
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इसके अतिरिक्त सेवा भावी संस्थाएं भी क्षेत्र की सफल सेवाएं कर रही हैं। इस प्रकार धुलेव ग्राम ऋषभदेव अथवा केशरियाजी के नाम से एक सुन्दर कस्बा बन गया है। इस समय गांव में लगभग ३५०० जनसंख्या है। जनता को तोर्थ क्षेत्र को सभी सुविधाएं प्राप्त हो रही है।
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मन्दिर की प्रतिष्ठा व ध्वजादंडरोहण
___ आदि ब्रह्म भ० ऋषभदेव की मूलनायक प्रतिमाजी के इस क्षेत्र पर प्रकट होने के उपरान्त ईटों से बनाये गये साधारण जिनालय को प्रतिष्ठा कब और कैसे हुई ? उसके विषय में अभी तक कोई प्रमाण भूत ऐतिहासिक सामग्रो प्राप्त नहीं हुई है, तथापि वि० स० १४३१ में मुख्य मन्दिर जीर्णोद्धत हुआ है, इससे स्पष्ट हैं कि साधारण जिनालय को प्रतिष्ठा प्राज से १००१ वर्ष पूर्व हुई होगो । तत्पश्चात मुख्य मन्दिर का वि. सं. १४३१ में जारर्णोद्धार हुआ था तब सर्व प्रथम मन्दिर को प्रतिष्ठा व ध्वजादण्डारोहण विधि हुई थी । यह प्रतिष्ठ दि० जैनाचार्य काष्ठासंघो भ. श्री धमकरति के तत्वाधान में हुई थी, ऐसा शिलालेख से ज्ञात होता है।
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तत्पश्चात वि० सं. १५७२ म निज मन्दिर के आगे की नौ चौकी और सभा मण्डल का निर्माण कार्य पूरा होना शिलालेख से प्रमाणित हैं। अतः उस समय खेला मण्डल में विराजमान 'पंच परमेष्ठो को उभय प्रतिमाजी और मूल मन्दिर को प्रतिष्ठा भट्टारक यशकोर्तिजी के तत्वाधान में हुई था तदुपरान्त १६११
और १२ में खेला मण्डल को कुछ प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा मूलसघो भट्टारक श्री शुभ वन्द्रजा के द्वारा हुई भा। परिक्रमा के सभो जिनालय उस समय नहीं बने थे। सा प्रतिमाए भो खेला मण्डप में विराजमान की गई थी। बाद में उन्हें जिनालयों में प्रतिष्ठा पूर्वक विराजमान की गई।
मूल मन्दिर की परिक्रमा में बने हुए जिनालय वि. सं. १६११ के.पूव बनने प्रारम्भ हो गये थे सा सवत् १७१० में बनकर तैयार हो गये। वि.सं. १७११,में इन्द्र इन्द्राणी के हाथों से स्थापना हुई थी । जिनालयों में विराजमान प्रतिमाएं समय समय पर इसो क्षेत्र पर प्रतिष्ठित होने पर विराजमान हुई हैं। प्रतिमा लेखों से ज्ञात होता हैं । १७५४ से १८३३ तक प्रतिष्ठा के कार्य भिन्न २ समय में होते रहते हैं। जिनमे से १७५७ तथा १८६३ की प्रतिष्ठाए बड़े समारोह पूर्वक हुई थी जो कि तीर्थ के इतिहास में उल्लेखनीय हैं।
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निज मन्दिर पर १५७२ के पश्चात १६८६ वि० सं० में बाज जाति के काष्ठासंघो कोडिया भीमा के पुत्र जसवन्त ने कलश तथा ध्वजादण्ड चढाया था इसका प्रमाण १७३० में लिखे गये स्पष्ट लेख से प्राप्त है । इसके बाद वि० सं० १७६३ में फिर से ध्वजादण्ड चढाने का प्रमाण मिला है । जो निम्न प्रकार है :
संवत् १७६३ माह सुदि १ गुरुवार श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक सकल किर्ति तद् प्रान्नाए भट्टारक विजय काति त् शिष्य ब्रह्मनारायणोपदेशात् श्री सूरत वास्तव हूंबड जातीय लघु शाखायां सघवो श्री मनाहरदास मनजो सुत किशोरदास दयालदास, भगवानदास एवं श्री सूरत नगरादागत्य श्री ऋषभ देव कलश तथा ध्वजास्तम्भ सोडयो सं० मनाहरदास स्वपरिक श्री ऋषभदेव नित्य प्रणमति ।
वि० संवत १८६३ में मन्दिर का परकोटा बना उस समय प्रतिष्ठा हुई और ध्वजदण्ड चढाया ऐहा ज्ञात हाता है । तत्पश्चात प्रभो हो वि० सं० १९८४ में सेठ पुनमचन्दजी करमचन्दजी कोटा वाले पाटन (गुजरात) निवासो ने पांच हजार रूपया नकद भेंट करके ध्वजादण्ड चढाने का विफल प्रयास किया, तब इस उत्सव में महान विघ्न हुआ और वही विघ्न तीर्थ के इतिहास में
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हत्याकाण्ड के नाम से प्रख्यात है । अतः इस विषय में संक्षेप में भी सत्य वर्णन करना न्याय संगत ही होगा।
१९८४ का हत्याकाण्ड
(१) एतिहासिक सिंहावलोकन
निज मन्दिर के खेला मण्डल में वि० सं० १४३१ और १५७२ के अभय लेखों से यह प्रमाणित होता है कि मूल मन्दिर का जीणोंद्वार दिगम्बर जैन भट्टारकों के तत्वाधान में शाह हरदाश के पुत्र पूजा तथा कोता ने एवं हीसा ने करवा कर प्रतिष्ठा करवाई थी। बाद में जिनालयों का निर्माण भो काष्ठासंघो एवं मूलसंघी भट्टारकों के उपदेश से हुना है ओर उन्हीं के तत्वाधान में प्रतिष्ठाएं भी सम्पन्न हुई थी मन्दिर के किलेनुमा कोट एवं मुख्य द्वार का निर्माण १९६३में सागवाडाके एक दिगम्बर जैन सेठने करवा था इसप्रकार प्राप्त शिलालेखों के आधार पर सत्य प्रमाणित होता है प्राचीन
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-३३-.
समय में मन्दिर पर दिगम्बर जैनाचार्य भट्टारकों का आधिपत्य रहा है तोर्थ के मूलनायक भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के दोनो ओर खड्गासन में स्थित उभय तीर्थङ्कर की प्रतिमाएं निर्गन्थ दशा में दिगम्बरत्व की द्योतक होकर दर्शन देती हैं। मूलनायक के पावासण में १६ स्वप्न दिगम्बर शास्त्रानुसार बने हैं । एवं खेला मण्डप में विराजमान पंच परमेष्ठी के मूलनायक के दोनों ओर खड़ो नग्न मूर्तियां भी दिगम्बरत्व को प्रमाणित करतो हैं । इससे यह सिद्ध होता है की मलतः मंदिर दिगम्बर है। बावन जिनालयों की सभी प्रतिमाएं साक्षात दिगम्बर रुप में बिराजमान हैं तथा सारे मन्दिर के बाहर शिखरों के निचे खड्गासन निर्गन्थ मूर्तियां दिखाई देती हैं। उक्त इतिहास इस बात को साक्षी है की मन्दिर पर मूल आधिपत्य दिगम्बर जैनो का ही था किन्तु बाद में तीर्थ के चमत्कारों से श्वेताम्बर और अन्य श्रद्धालु भक्तो का झुकाव इस अोर हुआ। कालक्रम से स्थानीय दिगम्बर जैन समाज के हाथों से मन्दिर का संरक्षण उदयपुर के महाराणा की देख रेख में तीर्थ का समुचित प्रबन्ध होने लगा । उस समय मेवाड़ सरकार में श्वेताम्बर जैन कर्मचारीयों का बोला था सो महाराणा सा० की बिना अनुमति के भी ध्वजादण्ड चढाने का जो प्रयास किया है इस पर दिगम्बर जैन समाज ने इस कार्य में अपना अधिकार सिद्ध करते हुए रोकने का प्रयत्न किया किन्तु कोई सुनवाई नहीं हुई।
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उत्सव ने भयंकर हत्याकांड का रुप
धारण किया
ध्वजादंड चढाने के साथ-साथ इस बात का प्रयत्न भी किया कि दक्षिण दिशा वाले बडे मण्डप की मूल प्रतिमानों पर मूकूट-कुण्डल भी चढा दिये जाय । यह देखकर दिगम्बर जैन समाज ने तोव्र विरोध किया, किन्तु नक्कारखाने में तुती को आवाज कोई नहीं सुनता को कहावत के अनुसार कोई सुनवाई नहीं हुई। मन्दिर के हाकिम श्रीलक्ष्मणसिंहजो के आदेश से दिगम्बरों का मन्दिर से पृथक किया जाने लगा और सिपाहियों ने संकेत पाकर मारकाट शुरु को और भागने वाले मन्दिर के द्वार पर राक दिये गये द्वार बन्द कर दिया गया। सिपाहियों ने हाथों में लाठिया आदि लेकर दिगम्बरों को मारना शुरु किया। परिणाम स्वरुप सर्वथा निरपराध ५ दिगम्बर भाई मारे गये। जिनके नाम इस प्रकार थेपं० गिरधरलाल, परसाद के दीपचन्दजो नागदा, पूनमचन्दजो, सेमारो के माणकचन्दजो, ४४ घायल हुए और बहुतो को चोट आई। इस प्रकार जैन मन्दिर में हत्याए होने से हत्याकाण्ड हो गया।
अनिष्ट समय में चढाया गया ध्वजादण्ड थोडे ही समय के बाद गिर पड़ा जो अब तक नहीं चढ पाया है। केवल ध्वजा का स्तम्भ ही लगा है । उसी ध्वजादण्ड के
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विषय में बाद में दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों समाजों के आपस में मुकदमें बाजी हुई और उसके लिए उदयपुर सरकार कि अोर से कमाशन बैठाया गया था जिसके निर्णय को मुख्यमुख्य बाते निम्न प्रकार है
( २ ) यद्यपि प्रारम्भ मे हो श्री ऋषभदेवजी का मन्दिर दिगम्बरी मन्दिर है किन्तु किर भी प्राचीन काल से यह हिन्दू जिसमें भील भी शामिल है तथा दूसरे जनों द्वारा पूजा जाता है।
( ३ ) दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में किसी समाज को ध्वजादण्डरोहण की धार्मिक विधि करने से रोका गया हो यह सिद्ध नहीं हो सका है।
(४) कोई भी दल जीर्णोद्धार प्रतिष्ठा या ध्वजारोहण करना चाहे तो उसे सर्व प्रथम देवस्थान महकमे से प्राज्ञा प्राप्त करनी होगी
इस प्रकार निर्णय होने पर मन्दिर की देख भाल का कार्य मेवाड़ सरकार के देवस्थान महकमे द्वारा बहुत सावधानी पूर्वक ट्रस्टो के रुप में होने लगा। परिणाम स्वरुप दोनों समाज के संघर्ष से मन्दिर की देख भाल एक ट्रस्टी के रुप में राजस्थान सरकार के अन्तर्गत देवस्थान विभाग द्वारा हो रही है। यह तीर्थ सेल्फ सपोर्टिग (आत्म निर्भर ) माना गया है। ट्रस्टो की हैसियत से देवस्थान विभाग जैन समाज के प्रति उत्तरदायी है। पूजन विधान का कार्यक्रम निश्चित कर देने के समयानुसार चलता है।
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१९८४ के हत्याकांड ने जैनियों की अहिंसा में कलंक लगा दिया। धर्म के लिए बलिदान होने वाले वोर शहीद तो मरकर भी अमर हो गये और उनके बलिदान ने तोर्थ के प्रारम्भिक इतिहास को सबके समक्ष स्पष्ठ रुप से प्रमाणित कर दिया कि यह तोर्थ दि० जैन ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं यही कारण है कि उच्च न्यायालय जोधपुर में अभी ही दि० ४ जुलाई ६६ ई० को पब्लिक ट्रस्ट एक्ट के अन्र्तगत दि० जैन समाज ने रिट दायर कर अपने तीर्थ की रक्षार्थ स्तुत्य उद्योग किया है जो कि सर्वथा उचित हो है, परिणाम भी हितकर होगा ऐसी प्राशा हैं । अब इस प्रसंग पर अधिक चर्चा नहीं कर तीर्थ चमत्कार का वर्णन करें गें ।तीर्थ के चमत्कारों ने ही इस पावन क्षेत्र को भारत में विरूयात किया हैं और इसी कारण भो लाखों नर नारी प्रतिवर्ष दर्शनार्थं आकर अपने को धन्य मानते हैं।
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तीर्थ के महत्वपूर्ण अतिशय
(चमत्कार)
प्रथम तीर्थंकर भ० ऋषभदेव की प्रतिमा के इस क्षेत्र पर प्रकट होने के उपरांत अतिशय बढ़ने लगा और इसी अतिशय के कारण विशाल जिन मंदिर का निर्माण हुआ। मूलनायक भगवान के चरण कमलों में अति श्रद्धा रखने वाले तीर्थ के रक्षक देवों द्वारा समय समय पर आश्चर्य जनक चमत्कार हुए हैं । दशनार्थ आने वाले अनेक सज्जनों की मनोकामनाएं पूरा हुई है और अनेक दुःखी व्यक्तियों ने संङ्कटों से छुटकारा पाया हैं । भ० ऋषभदेव के प्रति भक्ति रखने वाले श्रद्धालुओं को अनेक विपत्तयों में सहायता हुइ हैं । अतः यह क्षेत्र अपने अतिशय के लिए विश्व विख्यात हो गया है, तीथ के चमत्कारों से न केवल जैन हो वरन् अन्य घर्मावलम्बी इस ओर सद्भावना से आकर्षित हुए हैं । इस विषय में श्री ओझा सा० ने अपने राजपुताना तथा मेवाड़ के इतिहास में लिखा है
"
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हिन्दुस्तान भर में यहो एक ऐसा मन्दिर है जहां दिगम्बर तथा श्वेताम्बर जैन, वैष्णव, शैव, भाल एवं तमाम शूद्र स्नान कर समान रूप से मूर्ति का पूजन करते हैं ।"
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जिन अभिमानी व्यक्तियों ने इस तीर्थ की अश्रद्धा की ओर चमत्कार जानना चाहा,वे चमत्कार देखकर नमस्तक हो लौट गये। उदाहरण के लिए वि० सं० १८६३ के लगभग "सदाशिवराव" डूगरपुर से गलियाकोट आदि गांवों को लूटकर धुलेव पाया। यहां आकर वह अभिमान पूर्वक मन्दिर में जा घुसा और नीचे को बेदी के पास खड़े रहकर श्री प्रभू के सामने रुपया फेकते हुए बोला, हे जैन का देव ? यदि तू सच्चा है तो मेरा फेंका हुग्रा रुपया स्वीकार करले। कहते है वह फेका हुआ रुपया वापस आया और उसके सिर पर इस प्रकार लगा कि खून टपकने लगा। फिर भी वह नही समझ सका और अपनी सेना को मन्दिर लूटने की आज्ञा दे दी। तब मन्दिर में से भंवरों की सेना टूट पड़ी। तब बडा दुःखी हुअा और बहुत सा सामान छोडकर भाग गया । इसके बाद कभी इस और आने का साहस नहीं किया यह प्रमाण एक दो भजन से मिलता है और यह बात इतिहास के अन्य साधनों से भी सत्य हैं । भजन की दो तीन पंक्तियां इस प्रकार है ।
सुनियेरे बातां राव सदाशिव, मत चढ जाना धुलेवा । गढपति उनका बडा अटङ्का, मत छेडो तुम उन देवा। गलियाकोट से निकल सदाशिव धुलेवा गढ घेर लिया। तोपखाना तो पड़ा रहा ने, राव सदाशिव भाग गया।
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.. श्री केशरियाजी के पवित्र नाम रुपी मन्त्र को स्मरण करने से और केशर आदि को मानता से कठिन से कठिन कार्य भी सहज में ही हुए है । ऐसो मानता भक्तिशात् लोगों में पाई जाती है। उदाहरण के लिए गुजरात के एक गांव में एक विधवा बहन के इकलौते बालक को विष भरे काले नाग ने डस लिया तब उस महिला ने केशरियाजी का ध्यान करते हुए प्रभू के चित्र के सामने घी का दीपक धुप कर, जल को नाम रुपी मन्त्र से मन्त्रित कर पिला दिया सो बालक खडा हो गया । कुछ दिन बाद उसने अपने पुत्र सहीत क्षेत्र पर आकर प्रभू को अपने पुत्र के बराबर केशर चढाई। कहते है एक मारवाडी ने सन्तान नहीं जीने की स्थिति में केशर चढाने की बाधा ली तो उसके दो सन्तान हुई वह पुत्र के रुप जीवित रही । बालक के बड़े होने पर १२ वर्ष की आयु में सेठजी तीथं पर आये और अपने पुत्र के तोल के बराबर केशर चढाई इसी प्रकार सिरोही के सज्जन ने भी उसी समय अपने तीन वर्ष के बालक बराबर कैशर तोलकर चढाई । अभी ही एक सज्जन ने ८००/- रुपयों की केशर एक साथ चढा गये है । इस प्रकार कई लोग अपने बच्चों को चांदो रुपये, घी, शक्कर, गुड आदि से तोलकर भगवान को चढाते है ।
प्रायः यात्रियों की मान्यता रही है कि भगवान की "मानता" लेने से कार्य सिद्ध होते है। जिनके काय होन
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वाले होते हैं उनके लिए प्रसाद स्वरुप भगवान का पुष्प भी गिरता हैं एक रात्रि में संगोत कार्यक्रम के समय सन्तान हीन महिला के प्रार्थना करने पर एक साथ तीन पुष्प मिले । उठाने में एक निचे गिर गया और दो हाथ में रह गये । फल स्वरुप उस महिला के क्रम से तीन पुत्र हुए किन्तु एक पुत्र मर गया इस प्रकार बहुतों के मनोरथ सफल हुए हैं ।
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समुद्र में डूबते हुए जहाज का प्रभू के नाम से फिर से तिर जाने की बात प्रतिदिन भारती के बाद गाये जाने वाले निम्न स्तवन से ज्ञात होती हैं ।
'केशरियाजी ने जहाज को लोग तिराये । माने एहि अचरज भारी आयो || बीच समुन्दरजहाजडूबंता कोई आधार नही पायो । ऋषभनाम जप्या सब साये जहाज तिर आयो || नाभिनन्दन जहाज को लोक तिरायो | १ |
संक्षेप में तोथं चमत्कारों के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है । अतः भोल पटेल आदि जातियां भी प्रभु को श्रद्धा से पूजतो हैं जब कि यह दिगम्बर जैन तीर्थं ही हैं श्रद्धालुओं की प्राशाएं सफल हुई हैं और जिनने शुभकामनाएं चाही हैं, वे भक्त हुए हैं कुछ भी हो भगवान ऋषभदेव का दर्शन हो पापों का नाश करने वाला होने से मनोकामनाएं पूर्ण हो जाना स्वभाविक हैं ऐसे तार्थ की वन्दना कर यात्रियों को लाभ लेना चाहिये ।
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तीर्थ का वर्तमान रूप
[१] श्री केशरियाजी का मन्दिर :
प्राचीन इतिहास यह प्रमाणित करता है कि प्रारम्भ में मन्दिर की सारी देखभाल दिगम्बर भट्टारक के संरक्षण में थो । वि० सं० १८६० के पश्चात काष्ठासंघ के भट्टारक एवं स्थानिय भण्डारी व्यवस्था - कार्य करने लगे । तत्पश्चात भण्डारियो का कार्य सन्तोषप्रद नहीं होने से १६३४ के लगभग मन्दिर का संरक्षण उदयपुर के महाराणा ने अपने हाथ में ले लिया ओर भन्डारियों को मन्दिर को प्राय में से ३५ प्रतिशत देना निश्चत कर उनको सहायता से एक ट्रस्टी के रूप में क्षेत्र को व्यवस्था सम्भालने लगे । तब से मन्दिर संरक्षण मेवाड़ द्वारा हो रहा है। जो कि इस समय भी राजस्थान सरकार के देवस्थान विभाग द्वारा हो रहा है । हत्याकांड के बाद पूजन आदि का कार्यक्रम निश्चत कर दिया गया था जो अब तक जल घड़ी के अनुसार हो रहा है । यह घड़ी २४ मिनिट की होती हैं। कार्यक्रम इस प्रकार रहता है :
प्रातः मन्दिर की २ बजे अर्थात ७-२० के लगभग मूलनायक भगवान का जल से अभिषेक होता है । ७-४५
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-४२-
...
के करीब ३ बजती है । तब दूध प्रक्षाल होता है । दूध प्रक्षाल के समय श्री जो का मुखारविन्द देखते ही बनता है दूध को प्रबल धारा में भगवान का रुप देखकर असीम आनन्द की लहर उठतो । दूध के बाद पुनः जलाभिषेक होकर "अंगपोछन" होता हैं । कच्चो घड़ी की ४ बजने पर धुपखेवन होकर केशर और पुष्पों से पूजन होतो है । तत्तपश्चात बैण्ड बाजे के साथ आरती हाती है, और स्तवन गाया जाता है । इसके बाद दिन में १ बजे तक केशर पूजा होतो है प्रक्षाल पूजा को बोली का रुपया पुजारियो को मिलता है भण्डार में जमा नहीं होता । दिन में २ बजे तक दुन्दुभि बाजे (कृत्रिम दुन्दुभि नौबत) क साथ प्रातः की भांति जल दूध का अभिषेक होता है और फिर धुपखवन होकर केशर पूजा होतो हैं सांयकाल मूलनायक को प्रांगी धारण करवाते हैं जो रात्रि में ८ बजे तक रहती हैं सन्ध्या समय सुबह की भांति बैण्ड बाजे से श्री जो की आरती उतारी जाती हैं और फिर निज मन्दिर में तथा सभा मण्डप में केशरियाजो के गुणगान होते हैं । १० बजे के बाद विशेष रुप से शान्त वातावरण में भक्ति भरे स्तवन होते है । इस कार्यक्रम में जाने के लिए मन्दिर कामदार से स्वीकृति लेना आवश्यक होता हैं । इस प्रकार दैनिक कार्यक्रम चलता है दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों को इस कार्यक्रमानुसार दर्शन पूजन कर तीर्थ यात्रा का नाम लेना चाहिये।
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३
जगत पूज्य तीर्थकर भगवान की जय घोषणा के रुप में प्रतिदिन ब्रह्म मुहर्त में चार बजे नौवत बजतो हैं। तत्तपश्चात दिन में प्रातः मध्याह्न और सांयकाल आरती के समय भी नौबत बनती है । इस प्रकार रात्रि में भो नौवत बजती हैं, और फिर मन्दिर का द्वार बन्द हो जाता हैं।
दिन में पांच बार नौबत बजती हैं और दो बार मारती के समय भो बेण्ड बजता हैं। इस तीर्थ पर समवशरण मण्डप अथवा जन्मकल्याण के मानन्द का आभास रहता हैं। दर्शकों को प्रानन्द से भगवान के दर्शन पूजन कर असोम पुण्य संचय करना चाहिये।
चैत्र कृष्णा मष्टमी व नवमी को भगवान ऋषभनाथ के जन्मदिन पर मेले का आयोजन होता हैं । इस मेले में सहस्त्रों व्यक्ति दर्शनार्थ पाते हैं इसके अतिरिक्त तीर्थ पर दिप मालिका रप आदि का उत्सव भी मनाया जाता है पर्युषण पर्व के दिन में स्थानीय जैन समाज धर्म साधन कर पुण्य संचय करती हैं । नौचोकि की वेदी पर स्थानीय समाज की ओर से प्रतिदिन नित्य नियम पूजा होती हैं मोर रात्रि में प्रतिदिन शास्त्र स्वाध्याय होता हैं। ऋषभदेव में जैनों के ३०० घर हैं।
मन्दिर को मोर से यात्रियों के लिए मन्दिर के निचे स्नान करने की, उत्तम व्यवस्था है । स्त्रियों के शुद्ध वस्त्र आदि का प्रबन्ध है सो यात्रियों को शौचादि से निवृत
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होकर प्रात: यहीं स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहिनः कर. प्रक्षाल में पहुँचना चाहिए । मन्दिर की देखभाल के लिए निरिक्षक प्रधान के रुप में रहता है तथा अन्य कर्मचारी उसके नियन्त्रण में कार्य करते हैं । क्षेत्र पर आने वाले यात्रियों के लिए ठहरने को तीन धर्मशालाए हैं । धमशालाओं में सोने, बिछाने बर्तन प्रकाश आदि को व्यवस्था हैं ।
[२] पगल्याजी :
गांव के दक्षिण-पूर्व में तीन फर्लाङ्ग दूर पगल्याजी नामक स्थान है यह स्थान प्राकृतिक द्रष्टिकोण से अत्यन्त सुहावना है। भगवान ऋषभनाथ के चरण चिन्ह होने से यहां कि भाषा के अनुसार यह स्थान पगल्याजी कहलाता है बाबू कामताप्रसादजो के मतानुसार भगवान की चरण पादुकाओं वाले स्थान से धुलिया भील के स्वप्न के अनुसार केशरियाजी की प्रतिमा जमीन से निकली थो। पहले इस स्थान पर एक चबूतरा बना हुआ था । बाद में अभी हो एक नई छतरी ओर नये पगल्या बिराजमान हुए हैं ।
उसके उत्तरी भाग में महुवे के वृक्ष के निचे भगवान ऋषभनाथ का विश्राम स्थान बना हुमा हैं । कहते हैं भगवान इस स्थान से प्रकट हुए थे अर्थात यहीं विश्राम किया था । किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहां तक सत्य है। नहीं कहा जा सकता । हमारी राय से यह स्थान बाद में कल्पना के
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चाहिये ।
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४५.
आधार से बना दिया है। चरण पादुकाओं की छतरी के निकट जल से भरा एक कुण्ड और पास ही एक वर्षात नाला हैं । पगल्याजी के दक्षिण भाग में प्रांगण के सामने सभा मण्डप बना है जिसे यहां की भाषा में " ग्राम खास" कहते है यह एक जिनालय के रुप में हैं जिसमें केशरियाजी का सुन्दर चित्र है। मेले के समय रथ यात्रा के साथ आने वाला जन समुदाय वहां आसिन हो जाता है यदा कदा जुलुस निकलते है तब सवारी यही आती है और सभा मण्डप में, पालकी या रथ में विराजमान प्रतिमा लाकर पूजी जाती है । वह सभा मण्डप भी अभी ही बना हैं ।
[३] चन्द्रगिरि
क्षेत्र के समीपवर्ती एक पहाड़ी टीले पर एक छतरी और कुटीर तथा पास में एक लघु छतरी बनी हुई है यह छतरी भ० चन्द्रकिर्ति का स्मारक होने से चन्द्रगिरि कही जाती है कहते हैं भगवान चन्द्रकिर्ति को मार कर मन्दिर पर उस समय के प्रबंध कर्ताओं ने अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न किया था । स्मारक उन्ही भट्टारक का बना हुआ है । एक छतरी पर १७३७ का लेख है जिससे ज्ञात होता है कि यह स्मारक ४०० वर्ष पुराना होना
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भगवान चन्द्रकिर्ति के स्मारक की छतरी पर निर्गन्ध प्रतिमाएं एवं चरण अकित हैं, यह बड़ा सुन्दर हैं । यहाँ से
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बड़े हो कर सारा ऋषभदेव दिखाई देता है । मन्दिर के प्रा सारा गांव फैला है वह ऐसा लगता है मानो मन्दिर की वन्दना कर रहा हो । चन्द्रगिरि की छतरियां गांव के चारों ओर दिखाई देती है ।
इस पहाड़ी के निचे सूरज कुण्ड है"। इसका जल दिन में दो बार पुजारी ले जाता है । ओर मूलनायक के अभिषेक काम लिया जाता है । कुण्ड के पास ही छोटा कुण्ड यात्रियों के स्नानार्थ बना हैं । तथा पास ही वर्षात नाला है । कुण्ड पर छतरी भी बनी हुई है ।
[४] कोयल तथा कुंवारिका नदी
गांव की परिक्रमा करती हुई एक छोटी सी नही वर्ष भर जल से भरी रहती है। इस नदी को कोयल या कुवारिका के नाम से पुकारा जाता है गांव के उत्तर में इस नदी पर यात्रियों, एवं स्थानीय जनता के लाभार्थ एक पक्का घाट बना हुआ है। जिस पर एक छतरी भी बनी हुई है यह घाट अभी ही बना है गांव के दक्षिण में इस नदी पर एक मजबूत पांच दरवाजों वाला पक्का पुल बना है, जिस पर मोटरें आती जाती है ।
[५] भीम पगल्या
नदी के दरवाजे के पास तीर्थ के हित चिन्तक दिपम्बर जैन काष्टासंघ के सुप्रसिद्ध भट्टारक भीमसेन का स्मारक है जो कि भीम पगल्या से प्रसिद्ध है । देखने योग्य है। स्मारक प्राचीन हैं ।
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[६] भ० यशकीति भवन
धर्मशाला के सामने ही होलीचौक में दिगम्बर जैनाचार्य भट्टारक यशको तिजी महाराज का सुन्दर भवन बना हुआ है । यह भवन महाराज श्री ने वीर सं० २४६५ में बनवाया था जो कि १०००००) रु० की लागत का है इस भवन में स्फटिक एवं निलम की प्रतिमाओं सहित चैत्यालय है तथा शास्त्र भण्डार भी है । महाराज श्री ने इस भवन का ट्रस्ट बना दिया है। यह भवन यात्रियों को अवश्य देखना चाहिए ।
[७] सेवाभावी संस्थायें
ऋषभदेव में शिक्षणार्थ राज्य की ओर से उच्च विद्यालय, कन्या माध्यमिक शाला, प्रार्थमिक शाला, छात्राश्रम आदि हैं। तथा जैन समाज की ओर से दि० जैन विद्यालय व छात्रावास, कन्याशाला आदि संस्थाएं हैं। ये संस्थाएं ज्ञान दान दे रही हैं।
धर्म प्रचार की दृष्टि से श्री अखिल विश्व जैन मिशन की शाखा है जोकि अहिंसा प्रचार में जागरुक हैं । इसका कार्यालय पोस्ट प्रॉफिस के पास है । क्षेत्र की सेवार्थ दि० एवं श्वेताम्बर की पेढ़ी भी हैं। . [८] चैत्यालय और मन्दिर
गांव में चार चैत्यालय हैं । ऋषभदेव से ८ की० मी० दूर उदयपुर के मार्ग में पीपली नामक स्थान पर एक सुन्दर
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जैन मन्दिर हैं । यात्रियो को यहां दर्शन करने की सुविधाएं प्राप्त हैं । अतः दर्शन करने का प्रयत्न करना चाहिए।
इस प्रकार ऋषभदेव एक दर्शनीय अतिशय क्षेत्र है और आज के युग की सभी प्रावश्यक सुविधाएं प्राप्त है । इस क्षेत्र पर प्रतिवर्ष सभी धर्मावलम्बी सहस्त्रों की संख्या में आते है और बिना किसी भेदभाव के केशरियाजी को पुजन कर घर लौटते हैं । यह तीर्थ दिगम्बर जैन होते हुए भी सर्व मान्य होने से प्रत्यन्त श्रद्धा पूर्वक पूजा जाता है। यात्रियों की सद्भावना से दर्शन पूजन कर क्षेत्र के दर्शनीय स्थान देखने चाहिये। युग के साथ साथ स्वतन्त्र भारत में इस क्षेत्र ने भी पर्याप्त उन्नति की है और आगे भी भविष्य उज्जवल प्रतीत होता है, मन्दिर की वर्तमान व्यवस्था को दृष्टिकोण में लाते हुए दिगम्बर जैन समाज ने 'पब्लिक ट्रस्ट एक्ट' के अन्र्तगत उच्चन्यायालय जोधपुर में दिनांक ४ जुलाइ १९६६ को एक रीट दायर कर दी हैं। तीर्थ रक्षार्थ दिगम्बर जैन के लिए यही उचित हैं, परिणाम उत्तम ही रहेगा । हमने इतिहास लिखने में निष्पक्ष हो कर सत्यता अपनाई है। अत: यात्रियों को प्रमाणित इतिहास पर विचार करते हुए तीर्थ यात्रा का लाभ लेना चाहिये । भगवान ऋषभदेव के अतिशय से विख्यात यह तीर्थ सदैव जयवन्त हो।
इस शुभकामना के साथ लिखने से विराम लेते हैं ।
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शिक्षा ही सभ्यता की जन्नी है । सभ्यता के बिना शिक्षा निर्मुल है ।।
आईये आपका हम हार्दिक स्वागत करते हैं। आपके हो पवित्र स्थान पर एक आधुनिक कार्य प्रणाली से परिपुर्ण ऑटोमेटिक मशीन द्वारा सुन्दर व कलात्मक, आकर्षक प्रिन्टींग
के लिये सदैव तत्पर।
विपशतार:- सभी प्रकार का कलर प्रिन्ट, बिलबुक,
अकाउन्ट लेजरबुक, फोर कलर केलेन्डर प्रिन्ट, तथा रेज ईम्बोज प्रिन्ट काटून वर्क
- आपका अपना :
कल्याण प्रिन्टोंग प्रेस
बस स्टेण्ड के बाहर ऋषभदेव-उदयपुर (राज.) ३१३८०२
ANPANESH
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