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तत्पश्चात वि० सं. १५७२ म निज मन्दिर के आगे की नौ चौकी और सभा मण्डल का निर्माण कार्य पूरा होना शिलालेख से प्रमाणित हैं। अतः उस समय खेला मण्डल में विराजमान 'पंच परमेष्ठो को उभय प्रतिमाजी और मूल मन्दिर को प्रतिष्ठा भट्टारक यशकोर्तिजी के तत्वाधान में हुई था तदुपरान्त १६११
और १२ में खेला मण्डल को कुछ प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा मूलसघो भट्टारक श्री शुभ वन्द्रजा के द्वारा हुई भा। परिक्रमा के सभो जिनालय उस समय नहीं बने थे। सा प्रतिमाए भो खेला मण्डप में विराजमान की गई थी। बाद में उन्हें जिनालयों में प्रतिष्ठा पूर्वक विराजमान की गई।
मूल मन्दिर की परिक्रमा में बने हुए जिनालय वि. सं. १६११ के.पूव बनने प्रारम्भ हो गये थे सा सवत् १७१० में बनकर तैयार हो गये। वि.सं. १७११,में इन्द्र इन्द्राणी के हाथों से स्थापना हुई थी । जिनालयों में विराजमान प्रतिमाएं समय समय पर इसो क्षेत्र पर प्रतिष्ठित होने पर विराजमान हुई हैं। प्रतिमा लेखों से ज्ञात होता हैं । १७५४ से १८३३ तक प्रतिष्ठा के कार्य भिन्न २ समय में होते रहते हैं। जिनमे से १७५७ तथा १८६३ की प्रतिष्ठाए बड़े समारोह पूर्वक हुई थी जो कि तीर्थ के इतिहास में उल्लेखनीय हैं।
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