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समय में मन्दिर पर दिगम्बर जैनाचार्य भट्टारकों का आधिपत्य रहा है तोर्थ के मूलनायक भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के दोनो ओर खड्गासन में स्थित उभय तीर्थङ्कर की प्रतिमाएं निर्गन्थ दशा में दिगम्बरत्व की द्योतक होकर दर्शन देती हैं। मूलनायक के पावासण में १६ स्वप्न दिगम्बर शास्त्रानुसार बने हैं । एवं खेला मण्डप में विराजमान पंच परमेष्ठी के मूलनायक के दोनों ओर खड़ो नग्न मूर्तियां भी दिगम्बरत्व को प्रमाणित करतो हैं । इससे यह सिद्ध होता है की मलतः मंदिर दिगम्बर है। बावन जिनालयों की सभी प्रतिमाएं साक्षात दिगम्बर रुप में बिराजमान हैं तथा सारे मन्दिर के बाहर शिखरों के निचे खड्गासन निर्गन्थ मूर्तियां दिखाई देती हैं। उक्त इतिहास इस बात को साक्षी है की मन्दिर पर मूल आधिपत्य दिगम्बर जैनो का ही था किन्तु बाद में तीर्थ के चमत्कारों से श्वेताम्बर और अन्य श्रद्धालु भक्तो का झुकाव इस अोर हुआ। कालक्रम से स्थानीय दिगम्बर जैन समाज के हाथों से मन्दिर का संरक्षण उदयपुर के महाराणा की देख रेख में तीर्थ का समुचित प्रबन्ध होने लगा । उस समय मेवाड़ सरकार में श्वेताम्बर जैन कर्मचारीयों का बोला था सो महाराणा सा० की बिना अनुमति के भी ध्वजादण्ड चढाने का जो प्रयास किया है इस पर दिगम्बर जैन समाज ने इस कार्य में अपना अधिकार सिद्ध करते हुए रोकने का प्रयत्न किया किन्तु कोई सुनवाई नहीं हुई।
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