Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 19
________________ श्री कमलबत्तीसी जी कर्मों को, भाव-पर्याय को जीतना है फिर कर्मोदय जन्य उनका जो परिणमन चलना हो, चलता रहे। ज्ञानी, ज्ञायक रहकर सब देखता है फिर उसमें कुछ अच्छा बुरा विकल्प आदि होते ही नहीं हैं। अनादि काल से एकत्व परिणमन में सब एकमेक हो रहा है, उसमें से मैं मात्र ज्ञान स्वरूप, ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, इस प्रकार भिन्न होना है । जहां भिन्नता भाषित होती है वहां सब भाव, पर्याय, कर्मादि अपने आप विला जाते हैं, यही ज्ञान मार्ग में इनको जीतना कहलाता है। जीव भले ही चाहे जितने शास्त्र पढ़ले, वाद-विवाद करना जाने, प्रमाण, नय, निक्षेपादि से वस्तु की तकणा करे, धारणारूप ज्ञान का विशेष महत्व बताये, परन्तु जब तकशान स्वरूप आत्मा के अस्तित्व को न पकड़े और तद्रूप परिणमित न हो, तब तक वहोय निमग्न रहता है अर्थात् जो-जो बाहर का जाने, उसमें तल्लीन हो जाता है। शायक स्वभाव आत्मा का निर्णय करके मति, भुत ज्ञान का उपयोग जो बाह्य में जाता है उसे अंतर में समेट लेना, बाहर जाते हुए उपयोग को धुव स्वभाव के अवलम्बन द्वारा बारम्बार अंतर में स्थित करते रहना, यही शिवपुरी पहुंचने का राजमार्ग है। मैं धुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, ऐसी प्रतीति कर उसमें स्थिर हो जाने पर उसमें जो अनंत चमत्कारिक शक्ति है वह प्रगट अनुभव में आती है फिर यह भाव, कर्मादि कोई बाधा नहीं डालते। इनका परिणमन अपने में चलता हुआ निर्जरित क्षय होता जाता है। आत्मा अपने ज्ञानानंद,निजानंद, सहजानंद स्वभाव में निमग्न रहता है,यही मुक्ति मार्ग है। निज शुद्धात्म स्वरूप में मिथ्यात्व वर्णादि विभाव हैं ही नहीं, इसका यथार्थ ज्ञान, श्रद्धान होने तथा रूचि पूर्वक तन्मय होने पर मिथ्यात्वादि विभाव विला जाते हैं अन्य किसी उपाय अर्थात् पूजा, व्रतादि द्वारा यह मिथ्यात्वादि भाव नहीं हटता और न कर्म बंधन से मुक्ति होती है। प्रश्न-इतना सबज्ञान श्रद्धान भेवज्ञान अनुभव प्रमाण होने पर यह भ्रमना भयभीतपना क्यों होता है? समाधान-इसमें प्रमुख दो कारण हैं१. पर में चाह, लगाव, राग, रूचि होना । २. क्षायिक सम्यक्त्व का न होना। १. सम्यक्दर्शन होने पर, पर से एकत्व टूटता है और सम्यक्ज्ञान होने श्री कमलबत्तीसी जी पर, पर से अपनत्व और कर्तृत्व छूटता है, ज्ञायक भाव प्रगट होता है । अब सम्यक्चारित्र होने पर,पर से चाह लगाव छूटेगा, जिसका सूक्ष्म रूप राग और रूचि है। इनके छूटने पर वीतरागता होने पर परमानंद दशा होती है। इसमें अपनी अपेक्षा पुरूषार्थ की कमी और निमित्त की अपेक्षा चारित्र मोहनीय कर्म का उदय उसकी सत्ता है। २. क्षायिक सम्यक्दर्शन-पूर्ण अटल, दृढ श्रद्धान और पर पर्यायादि कर्मों के स्वरूप का दृढ अटल विश्वास होना ही क्षायिक सम्यक्दर्शन है । क्षायिक सम्यकदर्शन होने पर कोई भ्रमना, भयभीतपना नहीं रहता,पर यह सम्यक्त्व कर्मों के क्षय होने पर होता है तथा जो तद्भव मोक्ष गामी है या एक दो भव में मोक्ष जायेगा उसे ही होता है, ऐसा कर्म और जीव का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है । उपशम या वेदक सम्यक्त्व सहित सम्यक्ज्ञान सातवें गुणस्थान तक ले जाता है परन्तु वेदक सम्यक्त्व होने से श्रद्धान में चल, मल, अगाढ़पना होता है । अब इसमें अपने आप को देखो जानो और अपना पुरूषार्थ अपने स्वरूप साधना का करो, संयम तप का जोर लगाओ, परिस्थिति है उसमें समता शांति से ज्ञान भाव में ज्ञायक रहो। जिसने शांति और अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद चख लिया हो, उसे राग नहीं रूचता, वह परिणति में विभाव से दूर भागता है, जैसे एक ओर शीतल शांत स्थान हो और एक ओर अग्नि का दावानल हो तो मनुष्य उस अग्नि के दावानल से दूर भागता है और शीतल शांत स्थान में विश्राम करता है, वैसे ही ज्ञानी को विभाव परिणति, रागादि भाव-कर्म, संयोग रूचते नहीं हैं क्योंकि जब तक जरा सा भी संयोग रहेगा, विकल्प होंगे ही ; इसलिए ज्ञानी साधक मुनिराज एकांत निर्जनवन में अपनी साधना करते, ध्यान समाधि लगाते हैं। ___ मुनिराज तो निजात्मा, शुद्ध ममल स्वभाव में निवास करते हैं, उसमें विशेषविशेष एकाग्र होते-होते वे वीतरागता को प्राप्त करते हैं। वीतरागता होने से उन्हें ज्ञान की अगाध अद्भुत शक्ति प्रगट होती है, जिसमें लोकालोकप्रकाशित होता है, ऐसे अचिन्त्य महिमावंत केवलज्ञान को वीतराग मुनिराज ही प्राप्त करते हैं। अपनी पात्रता पुरूषार्थ अनुसार इन मिथ्यात्वादि कर्मों को जीतो । इनसे अपनी दृष्टि हटा लेना, इन्हें कोई महत्व मान्यता नहीं देना, अपने ज्ञान स्वभाव में स्थित रहना ही इन्हें जीतना है, जिससे यह सब स्वयमेव गल जाते विला जाते हैं।

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