Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 38
________________ श्री कमलबत्तीसी जी सब भाव-विभाव विला जाते हैं। सम्यक्दृष्टि पर द्रव्यों को बुरा नहीं जानता, वह तो अपने राग भाव को ही बुरा मानता है। स्वयं राग भाव को छोड़ता है तब उसके कारणों का भी त्याग रूप अभाव हो जाता है। वस्तु विचारणा में तो कोई भी पर द्रव्य भला बुरा नहीं है। पर द्रव्य तो आत्मा का एक रूप ज्ञेय है। एक रूपता में अनेक रूपता की कल्पना कर एक द्रव्य को इष्ट तथा अन्य द्रव्य ज्ञेय को अनिष्ट मानना, मिथ्याबुद्धि है। द्रव्यलिंगी विषय सेवन छोड़कर तपश्चरण करे तो भी वह असंयमी है। द्रव्यलिंगी नौ कोटि बाढ़ ब्रह्मचर्य पालन करे, मन्द कषाय करे परन्तु आत्मा का भान न होने से उसे चतुर्थ व पंचम गुणस्थान वाले ज्ञानी से हीन बतलाया है। असंयत, देशसंयत सम्यकदृष्टि के कषायों की प्रवृत्ति तो है परन्तु उसकी श्रद्धा में कोई भी कषाय करने का अभिप्राय नहीं रहता, पर्याय में कषाय होती है पर वह उसे हेय मानता है। द्रव्यलिंगी को तो शुभ कषाय करने का अभिप्राय रहता है और उसे श्रद्धा में भला भी समझता है। जिनके अन्तर में भेदज्ञान रूपी कला जागी है। चैतन्य के आनन्द का वेदन हुआ है, ऐसे ज्ञानी धर्मात्मा सहज वैरागी हैं। ऐसे ज्ञानी-विषय कषायों में मगन रहें, यह विपरीतता सम्भवित नहीं है। जिन जीवों को विषयों में सुख बुद्धि है वे ज्ञानी नहीं हैं। ज्ञानी को तो अन्तर के चैतन्य सुख के अलावा समस्त विषय सुख के प्रति उदासीनता होती है। अभी जिसको अन्तर में भान ही न हो, तत्व संबंधी कुछ भी विवेक न हो, वैराग्य न हो और वह ध्यान में बैठकर अपने को ज्ञानी माने तो वह स्वच्छन्दता का पोषण करता है। सम्यकदृष्टि को ज्ञान वैराग्य की ऐसी शक्ति प्रगट हई है कि गृहस्थाश्रम में होने पर भी सभी कार्य में स्थित होने पर भी लेप नहीं लगता, निर्लेप रहते हैं। ज्ञानी के अभिप्राय में,राग है वह जहर है, काला नाग है, उसे आत्मा के सिवाय बाहर कहीं अच्छा नहीं लगता।जगत की कोई वस्तु सुन्दर नहीं लगती, जिसे चैतन्य की महिमा है, उसी का रस है, उसको बाह्य विषयों का रस छूट जाता है। साधक दशा में शुभाशुभ भाव बीच में आते हैं परन्तु साधक उन्हें छोड़ता जाता है । चैतन्य की स्वानुभूति रूप खिले हुये नन्दन वन में साधक आत्मा आनन्द मय विहार करता है। जो शुभाशुभ भाव आते हैं वे विरूद्ध स्वभाव श्री कमलबत्तीसी जी वाले होने के कारण हेय रूप ज्ञात होते हैं रूचते नहीं हैं तथापि उस भूमिका में आये बिना रहते नहीं हैं। उसको भूमिकानसार बाह्य वर्तन होता है परन्त चाहे जिस संयोग में उसकी ज्ञान वैराग्य शक्ति कोई और ही रहती है। मैं तो ज्ञायक ज्ञान स्वरूपी शुद्धात्म तत्व ही हूँ, नि:शंक ज्ञायक हूँ, विभाव और मैं कभी एक नहीं हुये, मैं ज्ञायक स्वभावी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा पृथक् ही हूँ। सारा ब्रह्माण्ड पलट जाये तथापि मैं पृथक् ही हूँ। ऐसा अचल निर्णय होता है, स्वरूप अनुभव में आता है । अनुभव में अत्यंत निशंकता वर्तती है। स्वसमय शुद्धात्मा ममल स्वभाव में विराजता है, लीन होता है, तो यह सब छूट जाते हैं, विला जाते हैं। जिसे भव भ्रमण से सचमुच छूटना हो, उसे अपने को पर द्रव्य और पर भावों से भिन्न पदार्थ निश्चित करके अपने ममल स्वभाव में लीन रहने का पुरूषार्थ, प्रयास करना चाहिये । ज्ञायक की अपने ध्रुव धाम में दृष्टि जमने पर, ममल स्वभाव में रहने, उसमें एकाग्रता रूप प्रयत्न करते - करते पर्याय में निर्मलता प्रगट होती जाती है। यह सब अब्रह्म, विकथा, व्यसन, विषयादि के भाव अपने आप छूट जाते हैं विला जाते हैं। साधक जीव की दृष्टि निरन्तर शुद्धात्म तत्व पर रहती है तथापि साधक जानता सबको है। वह शुद्ध-अशुद्ध पर्यायों को जानता है और उन्हें जानते हुए उनके स्वभाव-विभावपने का, उनके सुख-दु:ख रूप वेदन का, उनके साधक-बाधकपने इत्यादि का विवेक वर्तता है; परन्तु मैं परिपूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वरूपी, परम शुद्ध, शुद्धात्मा हूँ इस पर दृष्टि रहती है, इससे यह सारा विभाव परिणमन अपने आप विला जाता है। द्रव्य तो स्वभाव से शुद्ध अनादि अनन्त है जो पलटता नहीं है, बदलता नहीं है, उस पर दृष्टि करने से, उसका ध्यान करने से अपनी विभूति का प्रगट अनुभव होता है। अपनी शक्ति प्रगट होने पर कर्मादि की शक्ति विला जाती है। साधक द्रव्य कर्म, भाव कर्म,शरीरादिनो कर्म के प्रति उदासीन रहता है क्योंकि शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने से उसे शुद्ध चैतन्य ही उपादेय है। जब से एव स्वभाव खात्मा को ध्यान में लेकर आत्मअनुभव हुआ, तब से वह जीव पूर्णानन्द स्वरूप को उपादेय जानने से रागादि रूप उठने वाले विकल्पों के प्रति उदासीन है। उन्हें कोई महत्व नहीं देता, उसकी दृष्टि में उनका कोई मूल्य महत्व न होने से वह अपने आप विला जाते हैं।

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