Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 73
________________ श्री कमलबत्तीसी जी वह संसार में आशा या इच्छा के रहने के कारण ही शरीर, इन्द्रियां, मन आदि वश में नहीं होते, जिसे शरीरादि से भिन्न अपनी सत्ता का स्पष्ट विवेक है, ज्ञानी है। जिसे इन तीनों बातों का दृढ़ निश्चय है कि मेरा कुछ नहीं है, मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये, मेरे लिये कुछ नहीं करना है, वह निर्विकारी न्यारा ज्ञायक अपने ज्ञान स्वभाव, ममल भाव में रहता है अतः संयोगों का लक्ष्य छोड़ दे और निर्विकल्प एक रूप वस्तु है, उसका आश्रय ले । त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव ही मैं हूँ, ऐसा आश्रय, आलम्बन कर। गुण-गुणी के भेद का लक्ष्य छोड़कर एक रूप गुणी की दृष्टि कर, तुझे समता होगी, आनन्द होगा, कर्मों का नाश होगा। एक चैतन्य वस्तु ध्रुव है, उसमें दृष्टि देने से तुझे मुक्ति का मार्ग प्रगट होगा यही सम्यक्चारित्र है। मोक्ष का कारण समभाव अर्थात् वीतरागता है। यह वीतरागता शुद्ध द्रव्य को लक्ष्य में लेने से होती है। शुद्धात्मा, ममल स्वभाव के आश्रय बिना वीतरागता नहीं होती। सम भाव का कारण तो वीतराग स्वभावी भगवान आत्मा है। उसका आश्रय करना व पर का आश्रय छोड़ना ही सम्यक् चारित्र है, यही वीतरागता मुक्ति मार्ग है। ज्ञान के अभ्यास से भेदविज्ञान होता है व भेदविज्ञान के अभ्यास से केवलज्ञान होता है । जैसे जमीन बिना वृक्ष नहीं ऊगता, वैसे ही मैं अखंड चैतन्य ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, ऐसी प्रतीति बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र अर्थात् स्थिर नहीं होता। शुद्ध चैतन्य स्वरूप की प्रतीति होने के बाद अन्तर में लीनता हो, यही सम्यक्चारित्र है। ज्ञान-विज्ञान से निज स्वरूप शक्ति को जानना । ज्ञान लक्षण व लक्ष्य रूप आत्मा अपने ज्ञान में भाषित होता है, तब सहज आनन्द की धारा बहती है, यही अनुभूति सम्यक् चारित्र है । प्रश्न - फिर इसमें बाह्य संयम, नियम, व्रत, प्रतिज्ञा आदि होते हैं या नहीं ? समाधान - भूमिकानुसार संयम-नियम- व्रत- प्रतिज्ञा आदि सब हैं। सम्यक्दर्शन होने के बाद व्रतादि के शुभ विकल्प आते ही हैं तथा प्रतिज्ञा लिये बिना आसक्ति का नाश नहीं होता। आनन्द स्वभाव में लीन रहूँ, ऐसी धर्मी की भावना होती है, बगैर वीतरागता के वह स्थिति बनती नहीं है परन्तु प्रतिज्ञा आदि तत्व ज्ञान पूर्वक होना चाहिए। प्रथम तो स्वभाव का ज्ञान ७३ श्री कमलबत्तीसी जी श्रद्धान होना चाहिए क्योंकि बगैर जड़ के वृक्ष टिकता नहीं है। शुद्धात्मा को जाने बिना भले ही क्रियाओं के ढेर लगा दो परन्तु उससे आत्मा नहीं जाना जा सकता। ज्ञान से ही आत्मा जाना जा सकता है। यथार्थ दृष्टि होने के पश्चात् साधक अवस्था बीच में आये बिना नहीं रहती। साधु पद से ही सिद्ध पद होता है। आत्मा का भान करके स्वभाव में एकाग्रता होती है, तब ही परमात्म स्वरूप समयसार अनुभूत होता है। आत्मा का अपूर्व और अनुपम आनन्द आता है। आनन्द के निर्झर झरते हैं। प्रश्न यह तो सब समझ में आता है, सत्य है, ध्रुव है, प्रमाण है परन्तु यह पूर्व बद्ध कर्म कैसे क्षय होते हैं, इसका उपाय बताइये ? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं - - गाथा - ३१ जिन उत्तं सदहनं, सद्दहनं अप्प सुद्धप्प ममलं च । परम भाव उपलब्ध, परम सहावेन कम्म विलयति ॥ शब्दार्थ (जिन उत्तं) जिनेन्द्र परमात्मा के कहे हुये वचनों पर (सद्दहनं) श्रद्धान करो, अटल दृढ़ विश्वास रखो (सद्दहनं) श्रद्धान करो (अप्प) आत्मा (सुद्धप्प) शुद्धात्मा (ममलं च) ममल स्वभावी है (परम भाव) परम पारिणामिक भाव, शुद्ध ध्रुव स्वभाव (उपलब्धं) उपलब्ध होओ, प्रगट करो, प्राप्त होना (परम सहावेन) परम स्वभाव से, परम पारिणामिक भाव में रहने से (कम्म विलयंति) कर्म विला जाते हैं, क्षय हो जाते हैं। विशेषार्थ - जिनेन्द्र परमात्मा के कहे हुये वचनों पर श्रद्धान करो कि मैं आत्मा शुद्धात्मा ममल स्वभावी हूँ, ऐसी श्रद्धा सहित स्वानुभूति से परम पारिणामिक भाव, शुद्ध चैतन्य स्वरूप परम स्वभाव में रहने से केवलज्ञान प्रगट होगा। - अपने चैतन्य स्वरूप परम ज्ञान स्वभाव में लीन होने से समस्त कर्म विला जाते हैं, श्री गुरूदेव स्वयं कहते हैं - तं जहं जहं हो कम्म उवनो, समल सुभाये । सो म्यान अम्मोयह विलियो, ममल सुभाये ॥ कम्म सहावं विपनं, उत्पत्ति विपिय दिस्टि सभावं । चेयन रूव संजुत्तं, गलियं विलियं ति कम्म बंधानं ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113