Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 84
________________ श्री कमलबत्तीसी जी नहीं है। शब्दों द्वारा वस्तु स्वरूप बताया जाता है, वस्तु तो अनुभव गम्य है। वर्तमान में जो व्यवहारिक क्रियायें, सामाजिक मान्यतायें चल रही हैं, उन्हीं का सही गूढ रहस्य, सच्चा मर्म बताना, संतों का काम है। जो समझे माने उसका भला, जो न समझे, न माने उसका भी भला, उन्हें किसी से कोई राग द्वेष होता ही नहीं है। प्रश्न- भगवान की दिव्य ध्वनि में क्या आया है? उत्तर- एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता तो नहीं, परन्तु स्पर्श भी नहीं करता, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। प्रत्येक द्रव्य की पर्याय क्रमबद्ध होती है। आत्मा मात्र ज्ञायक परमानन्द स्वरूप है, यह भगवान सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में आया है। प्रश्न- हम लोग ज्यादा पढ़े लिखे नहीं है। तत्व आदि को न याद कर सकते, न विशेष समझ सकते, ऐसे में क्या करें, फिर हमारा क्या होगा? उत्तर-लिखना पढ़ना आता है या नहीं आता, बुद्धि का क्षयोपशम है या नहीं, इससे धर्म का, ज्ञान मार्ग का कोई संबंध नहीं है। मैं धुव स्वभावी शुद्धात्म तत्व जीव आत्मा शुद्ध चैतन्य हूँ। यह समझ में आता है, तो सब समझ में आ गया । यदि अपने स्वरूप का भान नहीं होता, तो बाहर में कितना ही पढ़ा लिखा हो, सब शास्त्र याद हों, तो भी व्यर्थ हैं - और एक अपना ज्ञायक स्वभाव पकड़ में आ गया तो सब कुछ जान समझ लिया। इसके लिये बुद्धिपूर्वक अपने ज्ञान का उपयोग संपूर्ण शक्ति लगाकर भेदज्ञान एवं तत्वनिर्णय में लगाना चाहिये। अन्य कुछ आये या न आये, लिखना भी न आये, कुछ याद भी न रहे, उससे क्या प्रयोजन है? बस"तुष मास भिन्नम्"अनुभव में आ जाये, वह केवलज्ञानी होकर मुक्ति पाता है। इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं, बस ऐसा अनुभव प्रमाण जानने में आ जाये, निर्णय हो जाये तो सब कुछ जान लिया, ज्ञानी हो गये। प्रश्न-यह कैसे समझ में आवे कि जीव को सम्यग्दर्शन हो गया, यह शानी है और मुक्ति के सुख में मगन है? उत्तर- भाई ! यह पर की अपेक्षा समझने की बात नहीं है। यह तो निज की अपेक्षा की बात है, कौन कैसा है, उसकी वह जाने ; जो जैसा करेगा, वह श्री कमलबत्तीसी जी उसका फल भोगेगा। हमें तो अपने को देखना चाहिए, सद्गुरू तो अपनी बात बता रहे हैं, जैसे - इतने तीर्थंकर परमात्मा हो गये, उनको जान लेने से, अपने को क्या लाभ है। जब तक स्वयं वैसे नहीं होते, तब तक अपने को क्या मिलता है? अरे ! सम्यग्दृष्टि जीव को छह खंड के राज्य में संलग्न होने पर ज्ञान में तनिक भी ऐसा भाव नहीं आता कि यह मेरे हैं । छियानवे हजार अप्सरा जैसी रानियों के वृन्द में रहने पर भी उनमें तनिक भी सुखबुद्धि नहीं होती तथा कोई नरक की भीषण वेदना में पड़ा हो तो भी अतीन्द्रिय आनन्द के वेदन की अधिकता नहीं छूटती है। इस सम्यग्दर्शन का क्या महात्म्य है ? संसारी जीव को इस मर्म को बाह्य दृष्टि से समझना बहुत कठिन है। प्रश्न - जब आत्मा का रागादि भावों और शरीरादि से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर यह पाप विषय - कषाय को छोड़ने का क्या प्रयोजन है? उत्तर - सम्यक्दृष्टि निर्विकल्प अनुभव में निरन्तर ही रह सकते नहीं; इसलिए उन्हें भी शास्त्राभ्यास, व्रत, नियम, संयम के भाव उठते हैं। ऐसे शुभ राग को निर्विकल्प अनुभव की अपेक्षा हेय कहा है, निर्विकल्प अनुभव में रहना तो सर्वोत्तम है परन्तु छद्मस्थ का उपयोग निचली दशा में आत्म स्वरूप में अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाता। अत: ज्ञान की विशेष निर्मलता हेतु शास्त्राभ्यास में बुद्धि लगना योग्य है तथा चारित्र की शुद्धि निर्मलता हेतु व्रत-नियम-संयम-तप में लगना, पाप, विषय-कषायों से हटना बचना श्रेयस्कर है। यदि कोई शुभाचरण रूप प्रवृत्ति का विरोध करे और अशुभाचरण रूप प्रवृत्ति करे तो वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है। प्रश्न-बाहा आचरण में मतभेद होने से विवाद और एक दूसरे के प्रति राग-द्वेष पैदा होते हैं, इसका क्या समाधान होगा? उत्तर- इसका कोई समाधान नहीं है क्योंकि व्यवहार आचरण किसी का एक सा नहीं हो सकता। सब जीवों के कर्मोदय, पात्रता, परिस्थिति, संस्कार भिन्न-भिन्न होते हैं। एक घर में दश जीव हैं, तो सब के बाह्य आचरण, खान-पान, रहन-सहन स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं, दो भाई और बाप-बेटे का व्यवहार आचरण एक सा नहीं होता। अन्तरंग साधना में अनन्त ज्ञानियों का एक मत होता है और एक अज्ञानी के अनन्त मत होते हैं। व्यवहार आचरण खान-पान, रहन-सहन को लेकर धर्म के नाम पर इतने सम्प्रदाय और जातियाँ बनी हैं, जो धर्म के मूल को भूलकर बाहरी क्रिया कांड,

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