Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 103
________________ श्री कमलबत्तीसी जी मिट्टी-मिट्टी में मिल जाती, जलकर होता खार है। अशुचि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ पुद्गल परमाणु का ढेर यह सारा, क्षण भर में ढह जाता है। भ्रम भ्रांति यह दीख रहा जो, इसमें क्यों भरमाता है । द्रव्य दृष्टि से देखो जग को, करो यह तत्व विचार है। अशुचि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ ७. आस्रव भावना मोह माया में फंसा अज्ञानी, राग द्वेष ही करता है। इससे कर्म बंध होता है, मुफत में सुख दुःख भरता है । पर पर्याय पर दृष्टि रहना, कर्माश्रव का द्वार है। आसव भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । पर का कर्ता भोक्ता बनना, यही महा अपराध है। वस्तु स्वरूप विचार करो तो, आता अमृत स्वाद है। सम्यक्दर्शन ज्ञान के द्वारा, हो जाओ भव पार है । आसव भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । ८. संवर भावना निज शुद्धातम की दृष्टि होना, संवर तत्व कहाता है। कर्म बन्ध होना रूक जाता, जीव मोक्ष को पाता है । भेद ज्ञान तत्व निर्णय करना, एक मात्र आधार है। संवर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ निज स्वभाव की सुरत ही रहना, इसमें संयम कहलाता। पाप विषय कषाय का चक्कर, अपने आप ही छुट जाता ॥ निश्चय व व्यवहार शाश्वत, जिनवाणी का सार है। संवर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । ९. निर्जरा भावना ममल स्वभाव की ध्यान समाधि, कर्म निर्जरा कारण है। ज्ञानानंद में मस्त रहो बस, समझाते गुरू तारण हैं | धुवतत्व पर दृष्टि रहना, समयसार का सार है । निर्जर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है | श्री कमलबत्तीसी जी द्वादस तप अरू बारह भावना, वीतराग साधु होना । मन समझाने से काम चलेन,व्यर्थ समय अब नहीं खोना ।। कथनी करनी भिन्न जहाँ है, वहाँ तो मायाचार है। निर्जर भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ १०. लोक भावना चार गति चौरासी लाख का, चक्कर खूब लगाया है। जन्म मरण के दु:ख से छूटो, अपना नम्बर आया है । यह सारे शुभयोग मिले हैं, करलो खूब विचार है । लोक भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ नरभव यह पुरूषार्थ योनि है, अब तो निज पुरूषार्थ करो। साधु पद की करके साधना, जल्दी मुक्ति श्री वरो ॥ व्यर्थ समय अब नहीं गंवाओ, हो जाओ तैयार है । लोक भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ ११.बोधिदुर्लभभावना ज्ञान समान न आन जगत में, सुख शान्ति देने वाला। स्व-पर का यथार्थ ज्ञान ही, मिटाता सब भय भ्रम जाला ॥ निज स्वरूप का बोध जागना, करता भव से पार है। बोधि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है । सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान ही, मुक्ति सुख का दाता है। सम्यग्चारित्र होने पर ही, सिद्ध परम पद पाता है ।। सम्यग्ज्ञान का सूर्य उदित हो, मचती जय जयकार है। बोधि भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ १२.धर्मभावना चेतन लक्षण धर्म जगत में, एकमात्र सुखदाई है । निज स्वभाव की साधना करके, सबने मुक्ति पाई है। धर्म की महिमा देखो सामने, कैसी अपरंपार है । धर्म भावना भाने से, होता आतम उद्धार है ॥ १०३

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