Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 83
________________ श्री कमलबत्तीसी जी उत्तर- देव स्वरूप अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा इस बात के साक्षी और प्रमाण हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। जगत का कोई भी भव्य जीव अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान और साधना करके आत्मा से परमात्मा हो सकता है; इसलिये निज स्वरूप शुद्धात्म तत्व ही इष्ट आराध्य है, इसी के आश्रय से कर्मक्षय पर्याय की शुद्धि और मुक्ति होती है। पर के इष्ट - आराध्यपने से पराधीनता कर्म बंध होता है। - प्रश्न- तारण पंथ में देव पूजा की विधि क्या है ? उत्तर - अध्यात्म में सदैव निश्चयनय ही मुख्य है। व्यवहार के आश्रय से कभी अंशमात्र भी धर्म नहीं होता, अपितु इसके आश्रय से तो राग-द्वेष के विकल्प ही उपजते हैं। शुद्ध निश्चयनय से जिसने अपने सत्स्वरूप को जान लिया है कि सिद्ध के समान केवलज्ञानी अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा के समान मैं भी अनन्त चतुष्टय का धारी परमात्मा हूँ। तब वह अपनी वर्तमान पर्याय में जो अशुद्धि है, पूर्व में अज्ञान दशा में जो कर्मों का बंध हो गया है, उनको क्षय करने के लिये अपने परम पारिणामिक भाव ममल स्वभाव ध्रुव तत्व का आश्रय लेता है। अपने देवत्व स्वरूप की साधना आराधना स्मरण ध्यान कर निज गुणों को प्रगट करता है, इसी से पूर्व कर्म बन्धोदय निर्जरित क्षय होते हैं। यही ज्ञान मार्ग की सच्ची देव पूजा विधि है। पूर्व में जो ज्ञानीजन सिद्ध मुक्त हुये हैं वह भी इसी साधना से सिद्ध हुए हैं। अपनी कमी को दूर कर पूर्णता को प्राप्त करना ही सच्ची पूजा है। प्रश्न- तारण पंथ में देव दर्शन का क्या विधान है ? उत्तर- अध्यात्म में निश्चय से निज शुद्धात्मा ही देव होता है, जो इस देहालय में विराजमान है। तारण पंथी आंख बन्द करके अपने शुद्धात्म देव का दर्शन करता है और देव के स्वरूप को बताने वाली जिनवाणी को नमन करता है। प्रश्न- यह भक्ति आराधना तो व्यक्तिगत अंतरंग है, इसका समाज से क्या संबंध है ? इसे दूसरा क्या जाने, फिर और सब जीव कैसा क्या करें ? उत्तर - धर्म मुक्तिमार्ग तो व्यक्तिगत होता ही है। इसमें एक जीव का दूसरे जीव से कोई सम्बन्ध नहीं है। जो जैसा करेगा, उसका वैसा फल वही भोगेगा, परन्तु अध्यात्म दृष्टि बनाकर ज्ञान मार्ग की साधना सभी जीव कर ८३ श्री कमलबत्तीसी जी सकते हैं, इसमें कोई विरोध भी नहीं है। उपलब्धि स्थिति अपनी पात्रता और पुरूषार्थ के अनुसार होगी ; लेकिन लक्ष्य और उपाय एक सा किया है, किया जा सकता है। जैसे और सारे व्यवहारिक धन्धा, खेती आदि कार्य भी एक साथ एक से किये जाते हैं, वहां भाग्य अनुसार उपलब्धि होती है ; परन्तु यदि शुद्ध कारण है तो शुद्ध कार्य होगा- सम्यक् सही मार्ग है तो अपनी मंजिल लक्ष्य पर अवश्य पहुंचेगा। यदि विपरीत होगा, तो उसका परिणाम भी विपरीत होगा। यह बात सोचने समझने निर्णय करने का सौभाग्य मनुष्य को मिला है। मन, बुद्धि का होना ही मनुष्य की विशेषता है। इसमें जाति-पांति, नीच - ऊँच, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर की बात ही नहीं है। यह स्वतंत्रता हर मनुष्य को है कि वह अपने स्वरूप के बारे में सोचे समझे, अपने भविष्य का निर्णय करे । - प्रश्न- इस बात से तो बड़ा विरोध पैदा होता है, संसार में सभी अपनी साम्प्रदायिक मान्यता के अनुसार पूजा-विधान आदि धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, यदि वह सब गलत है, तो फिर कैसे काम चलेगा ? उत्तर - यह कोई वाद-विवाद का विषय नहीं है। यह तो अपनी अन्तर मान्यता का विषय है। कौन क्या करता है ? इससे भी कोई सम्बन्ध नहीं है । संसार में तो सभी तरह के जीव हैं और सब कुछ होता है। यहां तो जिसे मुक्त होना है, संसार में नहीं रहना है, सत्य वस्तु स्वरूप समझने की भावना है उसके लिये यह बात है। संसार में कौन क्या करता है ? उसकी वह जाने । यह जैन दर्शन, जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर का मार्ग बहुत सूक्ष्म है। प्रश्न- यह पूजा आराधना, दानादि के शब्द तो बड़े भ्रम में डालते हैं इनमें मन उलझता है, क्योंकि इनकी जो व्यवहारिक मान्यता और क्रिया है, वह तो सब विपरीत है। इसके लिये क्या किया जाये, इसका सही अभिप्राय क्या है ? उत्तर- व्यवहारी जन को व्यवहारी भाषा के द्वारा ही समझाया जाता है। जो जीव जिस भाषा को जानता है, उसी भाषा में बोला जाये, तभी वह समझता है, अन्यथा नहीं समझता। इसी प्रकार ज्ञान मार्ग, अध्यात्म साधना में उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ज्ञानी शब्दों को नहीं मर्म पकड़ते हैं। मर्म पकड़ने वाला ही धर्म को उपलब्ध होता है। क्रिया का शुभ अशुभ, पुण्य पाप कर्म से सम्बंध है। धर्म से क्रिया का कोई सम्बन्ध ही नही हैं, क्योंकि वस्तु स्वभाव तो निष्क्रिय, निरपेक्ष पूर्ण शुद्ध है। वहाँ शब्द भाषा का प्रयोजन ही

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