Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 44
________________ श्री कमलबत्तीसी जी चैतन्य दर्पण में प्रतिबिम्ब रूप झलकते दिखाई देते हैं। सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान होने पर शुद्धदृष्टि में यह प्रत्यक्ष भिन्न दिखाई देते हैं। अपने को अज्ञान रूप विकार रूप मानना, यही भ्रम है। जो ज्ञान स्वभाव के अभ्यास से दूर होता है। अपना स्वरूप तो ममल स्वभाव, ज्ञान मात्र चेतन सत्ता है। ममल स्वभाव का मतलब है कि जिसमें कभी कोई मल आदि विकार हुये नहीं, हैं नहीं, होंगे नहीं, ऐसे ममल स्वभाव की अनुमोदना बार-बार भेदज्ञान का अभ्यास करने पर ज्ञान स्वभाव में रहने पर, पूर्व अज्ञान जनित कर्मोदय जन्य जो ज्ञेय भाव पर और पर्याय, भावक भाव देखने-जानने में आते हैं, इनसे भिन्नता भाषित होना ही ज्ञायक स्वभाव ज्ञानीपना है। अभी ज्ञेय भाव के भेदज्ञान से शून्य होने के कारण स्वयं को ज्ञेय रूप जानता हुआ ज्ञानरूप परिणमित होने के बजाय अज्ञान रूप परिणमित होता हुआ, यह रागादि भाव मेरे है, ऐसा जानना-मानना ही ज्ञानान्तराय है और इससे बड़ा भ्रम, भ्रांति पैदा होती है, घोर अन्तराल आ जाता है। मैं ज्ञायक, ज्ञान स्वभावी, शुद्धात्मा, ध्रुव तत्व ममल स्वभावी हूँ और यह जो कुछ भी देखने-जानने में आ रहा है, मैं ज्ञान-स्वभावी ज्ञायक और यह सब ज्ञेय शरीर संसार आदि तो यह पर हैं ही, भीतर चलने वाले भाव और एक समय की पर्याय भी पर है। सब मेरे ज्ञान का ज्ञेय है, यह मेरा स्वभाव नहीं, इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसी ज्ञानधारा निरन्तर प्रवाहित हो तो फिर यह कुछ रहते ही नहीं हैं। प्रश्न- हम पर पर्याय को देखना ही नहीं चाहते, अपने ज्ञान स्वभाव ममल भाव में ही रहना चाहते हैं पर यह हठात विखाई देते हैं और बड़ी भ्रम-प्रांति पैदा कर देते हैं, भयभीतपना होने लगता है, यह क्या है, और इसका उपाय क्या है? समाधान- ज्ञान स्वभाव स्व-पर प्रकाशक होता है। यह ज्ञान स्वभाव की विशेषता है। आत्मा, ज्ञान स्वभावी है, केवल ज्ञान में तो लोकालोक झलकता है। केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में तीन काल, तीन लोक के समस्त द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती पर्याय झलकती हैं पर उन्हें कुछ नहीं होता, वह अपने परमानन्द में लीन रहते हैं। शरीरादि संयोग भी हैं पर उन्हें कुछ भी नहीं श्री कमलबत्तीसी जी लगता क्योंकि वह पूर्ण ज्ञानी, पूर्ण वीतरागी हैं। उनके घातिया कर्म क्षय हो गये हैं। अनन्त चतुष्टय स्वभाव प्रगट हो गया है ऐसे ही अपना स्वरूप यह आत्मा भी केवलज्ञान स्वभावी है परन्तु अनादि से ऐसे अपने स्वभाव को भूला, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि हो रहा है। अज्ञान, मिथ्यात्व के कारण संसार में कर्म बंधनों में एकमेक हो रहा है। अब सद्गुरू कृपा भेदज्ञान होने से स्व-पर का यथार्थ स्वरूप प्रतिभासित हुआ, सत्श्रद्धान ज्ञान हुआ, इसी को सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान कहते हैं। अब सम्यकदर्शन, ज्ञान होने पर ध्रुव तत्व, शुद्धात्मा, ज्ञान स्वभावी, ज्ञायक मात्र हूँ और यह सब पर पर्याय, कर्मोदय जन्य परिणमन संसार सब मेरे से भिन्न है। ___ अपनी एक समय की पर्याय भी कर्मोदय जन्य होने से अशुद्ध रूप है, वह भी मेरी नहीं है। मैं तो ममल स्वभावी, टंकोत्कीर्ण,शद्ध चैतन्य ज्योति ज्ञान मात्र ज्ञायक हूँ तथा यह एक- एक समय की पर्याय, जगत का त्रिकालवी परिणमन सब क्रमबद्ध निश्चित अटल है। जैसा केवलज्ञान में झलका है, वैसा ही हो रहा है और होगा। इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं एक अखंड अविनाशी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ। ऐसा दृढ़ अटल ज्ञान श्रद्धान पूर्वक अपने ममल स्वभाव में रहो, यही साधना सम्यक्चारित्र है। अब जिस भूमिका में बैठे हैं, जो पात्रता है जैसा पुरूषार्थ काम करता है। उसी अनुसार जितना ज्ञानोपयोग होगा, उतने ही समता, शांति, आनन्द में रहोगे और यह पूर्व कर्म बंधोदय क्षय होते जायेंगे। अभी जो भयभीतपना, भ्रम भ्रांति होती है, यह अपने ज्ञान, श्रद्धान की कमी है, इसे पक्का करो और जो न चाहते हुए भी दिखाई देते हैं यह पात्रता की कमी है, इसमें अपनी पात्रता बढ़ाओ, मोह, राग के संयोग में रहते हुये, अपने स्वभाव में नहीं डूब सकते, इसके लिये तो उत्तम पात्र, निर्ग्रन्थ, वीतरागी साधु पद ही चाहिये। पहले सच्चा ज्ञान होवे कि मैं इन शरीरादि से पृथक् हूँ। अन्तर में जो शुभाशुभ भाव होते हैं, वह भी मैं नहीं हूँ, मेरे नहीं हैं, मैं तो सबसे भिन्न मात्र ज्ञायक हूँ। यह स्थिति बनने के बाद ममल स्वभाव में रहने का पुरूषार्थ काम करता है और तभी अपने ज्ञानानन्द, निजानन्द स्वभाव में रहा जाता है फिर यह कोई बाधा नहीं डालते, फिर कोई भ्रम अज्ञान नहीं रहता। सहजानन्द में साधना चलती है।

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