Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 52
________________ श्री कमलबत्तीसी जी पहिचानता है। जीव कर्मों से बंधा हुआ है, ऐसा एक नय का पक्ष है और नहीं बंधा हुआ है, ऐसा दूसरे नय का पक्ष है। इस प्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बंध में दो नयों के दो पक्ष हैं। जो तत्व वेत्ता वस्तु स्वरूप का ज्ञाता ज्ञानी, पक्षपात रहित है. उसे निरन्तर चित्स्वरूप जीव-चित्स्वरूप ही है अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है, वैसा ही निरन्तर अनुभव में आता है। जो शुद्ध नय का भी पक्षपात (विकल्प) करेगा, वह भी उस शद्ध स्वरूप के स्वाद को प्राप्त नहीं करेगा। अशुद्ध नय की तो बात ही क्या है: इसलिये ज्ञानी सब पक्षपात, नय विकल्प छोड़कर चिन्मात्र-विमल शुद्ध स्वरूप में लीन, स्वरूप में प्रवृत्ति रूप चारित्र प्राप्त करके वीतराग दशा प्राप्त करता है। इससे ही सब कर्म क्षय होते हैं और अरिहन्त, सिद्ध पद प्रगट होता है। प्रश्न-जब कर्म जड़ हैं, उनका परिणमन उनमें चलता है,जीव का परिणमन जीव में चलता है फिर जीव के अपने शुद्ध ममल-स्वभाव में रहने से कर्म कैसे क्षय होते हैं। समाधान-जैसे जीव के अज्ञान भाव-मोह, राग-द्वेषादि से कर्मों का बंध होता है, वैसे ही जीव के ज्ञान स्वभाव वीतराग भाव में रहने से कर्म क्षय होते हैं, ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध है। इस आत्मा के क्रोधादिक मोहनीय कर्म की प्रकृति का अर्थात् राग-द्वेष का उदय आने पर, अपने उपयोग में उसका राग-द्वेष रूप मलिन स्वाद आता है। अज्ञानी को स्व-पर का भेदज्ञान न होने से यह मानता है कि यह राग द्वेष भाव मलिन उपयोग ही मेरा स्वरूप है, यही मैं हूँ। इस प्रकार राग-द्वेष में अहंबुद्धि करता हुआ अज्ञानी अपने को रागी-द्वेषी करता है इसलिये वह कर्मों को करता है। इस प्रकार अज्ञानमय भाव से कर्म बंध होता है। शानी को भेवज्ञान होने से वह ऐसा जानता है किशान मात्र शुद्ध उपयोग है वही मेरा स्वरूप है, वही मैं हूँ। राग-द्वेष कर्मों का रस है, यह मेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार राग-द्वेष में अहं बुद्धिन करता हुआ शानी-अपने को रागी-गोषी नहीं करता । इस प्रकार ज्ञानमय भाव से कर्म बन्ध नहीं होता तथा स्वरूप लीनता, वीतराग भाव से पूर्व बद्ध कर्म निर्जरितक्षय हो जाते हैं। श्री कमलबत्तीसी जी प्रश्न - यह ठीक है कि जीव का और कर्म का निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध अज्ञान जनित है परंतु "परस्परोपग्रहो जीवानां" परस्पर में एक जीव दूसरे जीव का उपकार तो करता है, जैसे आपके द्वारा हमें ज्ञान प्राप्त हुआ, यह निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तो ठीक है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं गाथा-२३ सत्व किलिस्ट जीवा, अन्मोयं सहकार दुग्गए गमनं । जे विरोह सभाव, संसारे सरनि दुष्य वीर्यमी ॥ शब्दार्थ- (सत्वं) संसार के सारे (जीवा) जीव, प्राणी,(किलिस्ट) क्लेश में महान दुखी हैं (अन्मोयं) अनुमोदना (सहकार) साथ देना (दुग्गए) दुर्गति में (गमन) गमन होता है (जे) जो जीव (विरोह सभावं) स्वभाव के विरोधीअज्ञान दशा में हैं (संसारे सरनि) संसार का परिभ्रमण, संसार चक्र (दुष्य वीयंमी) दु:खों का बीज बोते हैं। विशेषार्थ- संसार में अज्ञान दशा में सब जीव, बड़े क्लेश में महान दुःखी हैं तथा इसी अज्ञान दशा में, कषायाधीन एक दूसरे की अनुमोदना करते हुए उसमें सहयोगी बनते हैं, उन जीवों का दुर्गति में गमन होता है। जो जीव आत्म-स्वभाव का विरोध करते हैं, संसारी व्यवहार और राग को धर्म मानते हैं, वे संसार में चार गति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करने के लिये दु:खों का बीज बोते हैं। वीतरागता ही धर्म है, पूर्ण वीतरागी ही मुक्ति पाते हैं। जहाँ राग का अंश है-वहाँ बंधन है। भगवान की दिव्य ध्वनि खिरती है, देशना होती है पर उससे किसका क्या होता है, किसको लाभ होता है, इस ओर भगवान का उपयोग जाता ही नहीं है। इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि को भी विकल्प उठते हैं और वाणी निकलती है, पर वे यह नहीं देखते कि किसको लाभ हुआ, कितना लाभ हुआ, वे तो निजात्मा को ही देखते हैं। सर्वज्ञ परमात्मा-जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है, उसका जो जीव अवलम्बन ले, उसे उस ध्रुव स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है तभी उस जीव का उपकार होता है। संसार में - अज्ञान दशा में कोई जीव किसी जीव का उपकार कर ही नहीं

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