Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 64
________________ श्री कमलबत्तीसी जी गुण प्रगट हो जाते हैं। "जैसा ध्यावे, वैसा हो जावे" (१) क्षमागुण - सिद्ध भगवान तृष्णा की दाह से रहित हैं, मैं भी तृष्णा की दाह से रहित हूँ। सिद्ध भगवान काम वासना से रहित हैं, मैं भी काम विकार से रहित हूँ। सिद्ध भगवान न स्त्री हैं, न पुरूष हैं, न नपुंसक हैं, मैं भी न स्त्री हूँ,न पुरूष हूँ,न नपुंसक हूँ। सिद्ध भगवान क्रोध की कालिमा से रहित, परम क्षमावान हैं, मैं भी क्रोध के विकार से रहित परम क्षमावान हूँ, निन्दक पर समभाव का धारी हैं। (२) मार्दव गुण-सिद्ध भगवान कुल, जाति, रूप, बल, धन, अधिकार, तप, विद्या,इन आठ मदों से रहित- परम कोमल परम मार्दव गुणधारी हैं, मैं भी आठों मदों से रहित पूर्ण निरभिमानी व परम कोमल, मार्दव भाव का धनी हूँ। (३) आर्जव गुण-सिद्ध भगवान मायाचारी की वक्रता से रहित परम सरल - सहज गुणधारी हैं, मैं भी कपट जाल से शून्य परम निष्कपट, सरल, आर्जव स्वभाव धारी हूँ। (४) सत्यगुण- सिद्ध भगवान असत्य की वक्रता से रहित परम सत्य अमिट एक स्वभाव धारी हैं, मैं भी सर्व असत्य कल्पनाओं से रहित परम पवित्र, सत्य शुद्ध धर्म का धनी हूँ। (५) शौच गुण-सिद्ध भगवान लोभ के मल से रहित परम पवित्र शौच गुण के धारी हैं, मैं भी सर्व लालसा से शून्य परम संतोषी व परम शुद्ध शौच स्वभाव का धारी हूँ। (६) संयम गुण- सिद्ध भगवान मन व इन्द्रियों के प्रपंच से व अदया भाव से रहित पूर्ण संयम धर्म के धारी हैं, मैं भी मन व इन्द्रियों की चंचलता से रहित व परम स्व दया, पर दया से पूर्ण परम संयम गुण का धारी हूँ। (७) तप गुण-सिद्ध भगवान आप से ही अपनी स्वानुभूति की तपस्या को निरन्तर तपते हुये परम तप धर्म के धारी हैं, मैं भी स्वात्माभिमुख होकर अपनी ही स्वात्म रमणता की अग्नि में निरन्तर आपको तपाता हुआ, परम इच्छा रहित तप गुण का स्वामी हूँ। (4) त्याग गुण - सिद्ध भगवान परम शान्त व अभय दान को विस्तारते हुये, परम त्याग धर्म के धारी हैं, मैं भी सर्व विश्व में चन्द्रमा के समान परम शान्त अमृत बरसाता हुआ व सर्व जीव मात्र को अभय करता हुआ, परम श्री कमलबत्तीसी जी त्याग गुण का स्वामी हूँ। (९) आकिंचन्य गुण - सिद्ध भगवान एकाकी-निस्पृह-निरंजन रहते हुये, परम आकिंचन धर्म के धारी हैं। मैं भी परम एकान्त में रहता हुआ, स्वभाव की साधना करता हुआ, पर के संयोग से रहित परम आकिंचन गुण का धारी हूँ। (१०) ब्रह्मचर्य गुण-सिद्ध भगवान परम शील स्वभाव में अपने ब्रह्मभाव में रमण करते हुये,परम ब्रह्मचर्य धर्म के धारी हैं। मैं भी अपने ही शुद्ध स्वभाव में निर्विकारिता से स्थिर होता हुआ, ब्रह्म भाव का भोग करता हुआ, परम ब्रह्मचर्य गुण का स्वामी हूँ| सर्वश्रेष्ठ सत्ता धारी होते हुये भी, स्वभाव की व गुणों की अपेक्षा मेरे आत्मा की व सिद्ध परमात्मा की पूर्ण एकता है। जो वह सो में,जो मैं सो वह, इस तरह जो योगी निरन्तर अनुभव करता है, वही मोक्ष का साधक-श्रेष्ठ गुणों का धारी होता है। जो जीव भयानक संसार समुद्र में से निकलना चाहता है तो वह निज शुद्धात्मा को ध्यावे, उसी से कर्म ईंधन भस्म होगा। कमल श्री! अपने में अभय दृढ़ सख्त कठोर विज्ञान घन बनो। यह मन और राग के चक्कर में पिलपिले-ढीले रहने से काम चलने वाला नहीं है। जब अपना निर्णय-भेदज्ञान-तत्व निर्णय हो गया, अनुभव प्रमाण स्वीकार कर लिया कि मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ और यह एक-एक समय की चलने वाली पर्याय तथा जगत का त्रिकालवी परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, अपना किसी से कोई सम्बंध है ही नहीं। तो अब अपने में इतने ही अटल-अडोल अकंप अभय स्वस्थ आनन्दमय रहो। जब ज्ञान-श्रद्धान कर लिया, ज्ञानी हो गये, भेदज्ञान पूर्वक भिन्न न्यारे अपने धुवधाम में आकर बैठ गये तो अब शरीरादि संसार कर्मोदय की ओर देखने की जरूरत ही क्या है ? उनका अपनी तत्समय की योग्यतानुसार अपने में परिणमन चल रहा है और चलेगा। अब किसी घटना, व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति को कोई महत्व देने की जरूरत नहीं है क्योंकि जो होना थाहुआ, हो गया। जो होना है वह हो रहा है और जो होना होगा वह होगा । जब सब त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध, निश्चित, अटल है तथा जिसका कोई अस्तित्व सत्ता है ही नहीं फिर उसकी तरफ देखने, उसे कोई महत्व देने रागलगाव रखने की भी जरूरत क्या है ? जब तुम अपने में परिपूर्ण परमात्मा हो, परमानन्द मयी अपनी स्वतंत्र

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