Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 66
________________ श्री कमलबत्तीसी जी श्री जिनेन्द्र परमत्मा के वचन सत्य हैं, ध्रुव हैं,प्रमाण हैं,शोभनीक, मंगलीक, जय-जयवंत, कल्याणकारी, महासुखकारी हैं। यह कहने मात्र से काम नहीं चलता, इसको स्वीकार करो। भगवान कहते हैं आत्मा आनन्द स्वरूप है उसके आनन्द की प्राप्ति होना- वही मांगलिक है। भगवान आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है । सत् शाश्वत ज्ञान और आनन्द स्वरूप है। पर्याय में उसकी प्राप्ति, प्रतीति होना ही मंगल है। इस मंगल से ही पाप-पुण्य, मिथ्यात्व, अज्ञान, शल्य विषय-कषाय गल जाते हैं नाश हो जाते हैं, तभी वह सही मंगल है। भगवान ने कहा है - निज शुद्धात्मानुभूति करो, यही श्रेष्ठ इष्ट मुक्ति का मार्ग, आत्मा से परमात्मा होना है। अनेक प्रकार के शुभाशुभ भाव करने से कोई कार्य सिद्धि तो होती नहीं है। कार्य सिद्धि तो अनन्त-अनन्त आनन्द के सागर ऐसे शुद्धात्म स्वरूप की ओर ढलने, उसी में रमने-जमने से होती है, उधर क्यों नहीं झुकता? अनेक प्रकार के विकल्प और क्रियाओं में उलझना तो अपने स्वरूप से भ्रष्ट होना है। जितना इन शुभाशुभ भाव को देखोगे, बाह्य क्रिया में उलझोगे, उतने ही स्वानुभव के मार्ग से भ्रष्ट होते जाओगे तथा इससे कोई कार्य सिद्धि होना नहीं है। प्रथम आत्मा का निर्णय करके, स्वानुभव का प्रयत्न करना चाहिए। सम्यक्दृष्टि ऐसा जानता है कि शुद्ध निश्चय नय से मैं मोह, राग-द्वेष आदि विकारी भावों से रहित शुद्ध चैतन्य ज्योति ज्ञायक स्वभावी भगवान आत्मा हूँ। ऐसे निर्णय की दृढ़ प्रतीति से ही अज्ञान, मिथ्यात्व, शल्य, विषय, कषाय छूट जाते हैं। केवल जिनवाणी का वाचन करने, बोलने, पर को बताने में लगे रहने से चिन्तन शक्ति घटती है । जिनवाणी को जीवन में उतारना है। धर्म चर्चा का विषय नहीं,चर्या का विषय है। जितना शुभाशुभ विकल्प और क्रिया कांड में उलझना, बहना, उनमें बढ़ते जाना, उतने ही स्वानुभव के मार्ग से भ्रष्ट होना है। द्वादशांग में एक स्वानुभूति करने का ही निर्देश है। सर्व शास्त्रों का सार आत्मानुभवन करना है और इससे ही सब मिथ्यात्व, अज्ञान, विषय-कषाय, कर्मादि गलते-विलाते, क्षय हो जाते हैं। भगवान जिसके हृदय में विराजते हैं, उसका चैतन्य शरीर-राग, द्वेष रूपी जंग से रहित हो जाता है। भगवान सर्वज्ञ देव ऐसा कहते हैं कि आत्मा में शरीर, संसार या रागादि हैं ही नहीं, सर्व प्रथम ऐसा निर्णय कर आत्मा का अनुभव कर ले। इसके बजाय जो ऐसा मानते हैं कि प्रथम शुभ क्रिया कर, श्री कमलबत्तीसी जी कषाय मंद कर, आत्मा हल्का हो तब आत्मा का अनुभव होता है, वे जीवदेव, गुरू, शास्त्र के कथन का अनादर करते हैं। यह आत्मा ही जिनवर है, यही तीर्थंकर है। अनादि काल से जिनवर है, अनन्त केवलज्ञान की खानि है। निज आत्मा ही अमृत का कुंभ है, अमृत का सरोवर है, इसी में एकाग्र होने से, पर्याय में जिनवर के दर्शन होते हैं परमात्मा प्रगट होते हैं। __भगवान तू तो अनन्त गुणों का भंडार है, पुण्य-पाप रागादि भावों का भंडार नहीं है, यह तेरे में हैं ही नहीं। तू इन्हें अपने मानता है, यही मिथ्यात्व अज्ञान है। भगवान आत्मा ज्ञायक भाव रूप है और शुभाशुभ भाव अचेतन रूप हैं, मन की तरंगें हैं, कर्मोदय जन्य हैं। यदि ज्ञायक स्वरूप-शुभाशुभ भाव रूप हो, तो जो चेतन है, वह अचेतन हो जाये, स्व-पर प्रकाश पुंज-प्रभु तो शुद्ध ही है,पर जो राग से भिन्न होकर उसकी उपासना करे, उसी के लिये शुद्ध है । आत्मा कभी रागादि विकल्प रूप नहीं हुआ है अत: रागादि से भिन्न होकर निज शुद्ध स्वभाव की उपासना करने पर पर्याय में भी शुद्धता प्रगट होती है। जैसे राग की मंदता मोक्ष मार्ग नहीं है, जैसे व्यवहार सम्यक्दर्शन मोक्ष मार्ग नहीं है या मोक्ष का कारण नहीं है। वैसे ही उनके साथ प्रवर्तित पर सत्तावलंबी ज्ञान भी न तो मोक्षमार्ग है और न ही मोक्ष का कारण है। स्व सत्ता को अनुभव में लेने की योग्यता वाला ज्ञान ही मोक्ष का कारण है। ज्ञानानुभूति आत्मानुभूति यही मोक्ष का कारण है और इसी से सब कर्मादि क्षय होते हैं। राग-द्वेषादि विकार भाव, उस ओर की परिणति ही दुःख है। इससे मुक्त होने की इच्छा वाले मोक्षार्थी पुरूष को सर्व प्रथम आत्मा को जानना , जैसा जिनेन्द्र भगवान कहा है कि आत्मा चैतन्य रत्नाकर है, विकार की वृत्ति उससे भिन्न है। पुण्य-पाप रूप विकारों से भिन्न होकर सर्व प्रथम ज्ञायक स्वभावी सच्चिदानन्द प्रभु को जानो। तेरे ज्ञान की पर्याय में सदैव स्वयं आत्मा ही खुद अनुभव में आता है। अनुभूति स्वरूप भगवान आत्मा अनुभव में आने पर भी तू उसे नहीं देखता ! क्यों? क्योंकि पर्याय बुद्धि के वश हो जाने से परद्रव्यों के साथ एकत्व बुद्धि के कारण स्व द्रव्य को नहीं देख सकता । सद्गुरू और शास्त्र तो दिशा बतलाते हैं कि रागादि विकारी भाव रूपतू नहीं है अत: वहाँ से दृष्टि हटा और अपने ध्रुव स्वभाव में दृष्टि लगा क्योंकि स्थिर वस्तु में दृष्टि स्थिर हो सकती है। अस्थिर वस्तु में दृष्टि स्थिर नहीं हो सकती। ध्रुव स्वभाव स्थिर वस्तु है, वह स्वयं के परिणमन में भी नहीं आती अत: उस पर दृष्टि देने से दृष्टि स्थिर होती है। इस प्रकार जिनवाणी और सद्गुरू मार्ग दिखलाते हैं पर करना

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