Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ श्री कमलबत्तीसी जी सब जीवों के प्रति, सभी भावों के प्रति, अखंड एक रस वीतराग दशा रखना ही सर्व ज्ञान का फल है। आत्मा शुद्ध चैतन्य-जन्म, जरा, मरण रहित असंग स्वरूप विमल स्वभावी है, इसमें सर्व ज्ञान समा जाता है। ज्ञानी जीव भेदज्ञान के बल से राग, द्वेष, मोह को आत्मा से भिन्न करके वीतराग विज्ञानमय आत्मा का अनुभव करता है। राग, द्वेष, मोह को हटाने के लिये, ज्ञानी जीव-मोहनीय कर्म, राग, वेष, मोह भावों तथा उन्हें उत्पन्न करने वाले बाहरी द्रव्यों से परम उदासीन हो जाता है। __ व्यवहार नय से देखने पर संसारी जीवों में भेद दिखता है, मित्र-शत्रु का, माता-पिता का, पुत्री-पुत्र का, स्वामी-सेवक का,ध्याता-ध्येय का, सुन्दरअसुन्दर का, रोगी-निरोगी का, धनिक-निर्धन का, विद्वान-मूर्ख का, बलवान-निर्बल का, कुलीन-अकुलीन का, साधु-ग्रहस्थ का, राजा-प्रजा का, देव-नारकी का, पशु-मानव का, स्थावर-वस का, सूक्ष्म-बादर का, पर्याप्त-अपर्याप्त का, प्रत्येक-साधारण का, पापी-पुण्यात्मा का, लोभीसंतोषी का, मायावी-सरल का, मानी-विनय वाले का, क्रोधी-क्षमाशील का, स्त्री-पुरूष का, बालक-वृद्ध का, बहिन-भाई का, अनाथ-सनाथ का, सिद्धसंसारी का, ग्रहण योग्य या त्याग योग्य का भेद दिखता है, तब विषय भोग का लोलुपी, कषाय का धारी जीव, इष्ट से राग, अनिष्ट से द्वेष करता है। यह सब बाहरी व्यवहार में दिखने वाला जगत-राग द्वेष,मोह को पैदा करने का निमित्त हो जाता है। ज्ञानी-मोह, राग, द्वेष भावों की मलिनता से बचने के लिये निश्चय नय से जगत को देखता है तब सर्व ही छह द्रव्य अपने मूल स्वभाव से अलग-अलग दीख पड़ते हैं। सर्वपुद्गल शुद्ध परमाणुरूप में,धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, असंख्यात कालाणु सब ही अपने-अपने स्वभाव में दीख पडते हैं तथा सर्व ही जीव एक समान शुद्ध दीख पड़ते हैं। आप भी अपने को शुद्ध देखता है, तब सम भाव हो जाता है। ज्ञानी आत्मानुभूति में रत ममल स्वभाव में रहने के लिये राग, द्वेष, मोह भाव को दूर कर, शुद्ध स्वभाव की साधना करता है। आत्मा का स्वभाव यथार्थ प्रतीति का धारी है। स्व को-स्व, पर को-पर, यथार्थ श्रद्धान करने वाला है व सर्व लोकालोक के द्रव्य, गुण, पर्यायों को एक साथ जानने वाला है। चारित्र गुण से यह परम वीतराग है। रत्नत्रय स्वरूप यह आत्मा अभेद दृष्टि से एक रूप है, परम निरंजन, निर्विकार, परम ज्ञानी, परम शान्त, परमानन्द श्री कमलबत्तीसी जी मय है। इस तरह बार-बार अपने आत्मा को ध्याता है तब परिणामों की स्थिरता होने पर ममल स्वभाव में लीन होता है यही मोक्ष मार्ग है। आत्मानुभव के समय अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आता है। इसी स्वाद को लेते हुये, आत्मानुभव करते हुये, ज्ञानी आत्म ध्यान में लीन क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर अरिहन्त परमात्मा होकर अनन्त सुख का भोगने वाला हो जाता है। तीन काल और तीन लोक में शुद्ध निश्चय नय से ज्ञान रस और आनन्द कन्द सच्चिदानन्द प्रभु केवल मैं हूँ। ऐसी दृष्टि ही शुद्ध दृष्टि है तथा मैं ऐसा हूँ और सब जीव भी भगवान स्वरूप हैं। परमात्म स्वरूप सभी जीव हैं। इसका नाम समभाव है। किसी के प्रति कोई भी राग, द्वेष, मोह का न होना सम भाव है। भूमिकानुसार-मैत्री, प्रमोद, कारूण्य, माध्यस्थ भाव का सहयोग होता ही है। ज्ञानी की भावना होती है सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे । बैर-पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे ॥ घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत-दुष्कर हो जावे । ज्ञान-चरित उन्नति कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावे ॥ इस प्रकार ज्ञानी की शुद्ध दृष्टि और समभाव होने पर परमशांति आ जाती है। इसमें स्थित रहता हुआ ज्ञानी, कर्मों को क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है। फिर उसे आकुलता-व्याकुलता, उकताहट संकल्प-विकल्प नहीं होते। शान्त समता में सहजानन्द में अपनी साधना-करता रहता है। प्रश्न-ज्ञानी अब किस तरह की साधना करता है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं गाथा-२२ एकांत विप्रिय न दिस्टं, मध्यस्थं विमल सुद्ध सभावं । सुख सहावं उत्त, ममल दिस्टीच कम्म संषिपनं ॥ शब्दार्थ- (एकांत) एकान्त, एक पक्ष (विप्रिय) विपरीत पक्ष (न) नहीं (दिस्ट) देखता (मध्यस्थं) मध्यस्थ, सम भाव, बीच में साक्षी रहता है (विमल) मल रहित (सुद्धसभावं) शुद्ध स्वभाव में (सुद्ध सहावं) शुद्ध स्वभाव की (उत्तं) कहा है, कहता है जाग्रत रखता है (ममल दिस्टी च) ममल दृष्टि के द्वारा (कम्म संषिपन) कर्म क्षय होते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113