Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 36
________________ श्री कमलबत्तीसी जी शल्य आदि सब छूट जाते हैं। ___ मन, वचन, काय, पुद्गलकृत विकार व कर्म के उदय से होने वाली क्रियायें यह सब पर हैं। मिथ्यादृष्टि जीव-ममकार व अहंकार के दोषों में लिप्त रहता है। शरीर, धन, परिवार, देश,ग्रामादि पदार्थ जो सदा ही अपने आत्मा से जुदा हैं, जिनका संयोग कर्म के उदय से हुआ है, उनको अपना मानना ममकार है। जैसे-यह शरीर मेरा है. इससे ही पर पर्याय से सम्बन्ध जडता है तथा जो कर्म के उदय से होने वाले रागादि भाव, निश्चय से आत्मा से भिन्न हैं, उन रूप ही अपने को रागी-द्वेषी मानना अहंकार है और इसी से शल्य विकल्प होते हैं। शरीरादि संयोग अपनी आत्मा से भिन्न कहे हैं, वे कभी आत्मा नहीं हो सकते तथा आत्मा उन रूप नहीं हो सकता, वे कभी आत्मा के नहीं हो सकते । आत्मा सर्व रागादि भाव से रहित परम शुद्ध है, इस तरह आत्मा को केवल आत्मा रूप टंकोत्कीर्ण, ज्ञाता दृष्टा, परमानन्द मय समझ कर उसी में रमण करना, इससे सब पर संयोग, पर्यायी परिणमन और शल्य आदि विभावभाव अपने आप छूट जाते हैं। आत्मा आप ही से आपमें क्रीड़ा करता हुआ, शनैःशनै: शुद्ध होता हुआ परमात्मा हो जाता है। जितनी मन, वचन, काय की शुभ-अशुभ क्रियायें हैं वे सब पर हैं, आत्मा नहीं हैं। चौदह गुणस्थान की सीढ़ियां भी आत्मा का निज स्वभाव नहीं है। आत्मा परम पारिणामिक एक जीवत्व भाव का धनी है, जिसका प्रकाश कर्म रहित सिद्ध गति में होता है। आत्मा का स्वभाव ज्ञानानंद ज्ञान मय है, उस स्वभाव की प्राप्ति को ही मोक्ष कहते हैं। जो कोई शरीरादि से भिन्न इस प्रकार केशाता दृष्टा अविनाशी आत्मा को नहीं जानता, वह उत्कृष्ट तप तपते हुए भी निर्वाण को नहीं पाता है। जो कोई इस भयानक संसार सागर से पार होना चाहे. कर्म धिन को जलाना चाहे तो उसे अपने शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिए।जीव से अजीव लक्षण से ही भिन्न है, इसलिए शानी जीव अपने को सर्वरागादि से व शरीरादि से भिन्न शान मय, प्रकाश मय एक रूप अनुभव करता है। वह जानता है कि मैं शबद्रव्यामेरा स्वभाव परम शुद्ध निरंजन, निर्विकार, अमूर्तिक, पूर्ण ज्ञानमयी, ज्ञान स्वभावी है। मेरे साथ पुद्गल संयोग है पर यह मेरा रूप नहीं है। मैं निश्चय से पुद्गल से व पुद्गलकृत सर्व रागादि विकारों से भिन्न हैं। श्री कमलबत्तीसी जी जो यह जानेगा कि मैं रोगी हूँ तथा रोग का कारण यह है, वही रोग के कारणों से बचेगा व विद्यमान रोग के निवारण के लिये औषधि का सेवन करेगा इसलिए गाथा में कहा है कि जीव-अजीव के भेद का ज्ञान करने से पर-पर्याय शल्यों से छूट जाते हैं। "अप्पा परू पिच्छन्तो" आत्मा को और पर को भिन्न-भिन्न पहिचानने से पर पर्याय, शल्य आदि समस्त दोष छूट जाते हैं। आत्मा को जब निश्चय नय से तथा पुद्गल को उसके स्वभाव से देखा जावे, तब देखने वाले के सामने अकेला एक आत्मा सर्व पर के संयोग रहित खड़ा हो जायेगा । वहाँ न तो आठों कर्म दिखेंगे, न शरीरादि नो कर्म दिखेंगे, न राग-द्वेषादि भाव दिखेंगे, सिद्ध परमात्मा के समान हर एक आत्मा दिखेगा। यह आत्मा वास्तव में अनुभव में सबसे भिन्न अकेला है तथापि समझने के लिये कुछ विशेष गुणों के द्वारा अचेतन द्रव्यों से भिन्न करके बताया है। जैसे - (१)शान-जिस गुण के द्वारा यह आत्मा दीपक के समान आपको व सर्व जानने योग्य द्रव्यों की गुण पर्यायों को एक साथ क्रम रहित जानता है, इसी को केवलज्ञान स्वभाव कहते हैं। इन्द्रियों की व मन की सहायता के बिना होने से इसे सकल प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान आवरण रहित सूर्य की भांति प्रकाशता है। इसी के द्वारा अन्य गुणों का प्रतिभास होता है, इसी को सर्वज्ञपना कहते हैं। ऐसा हर एक आत्मा स्वभाव से सर्वज्ञ है। (२) दर्शन-जिस गुण के द्वारा सर्व पदार्थों के सामान्य स्वभाव को एक साथ देखा जा सके, वह केवलदर्शन स्वभाव है। वस्तु सामान्य विशेष रूप है। सामान्य अंश को ग्रहण करने वाला दर्शन है और विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है। (३) सुख-जिस गुण के द्वारा परम निराकुल अद्वितीय आनन्दामृत का निरन्तर स्वाद लिया जाये। हर एक आत्मा अनंत सुख का सागर है, वहाँ कोई सांसारिक नाशवंत पर के द्वारा होने वाला सुख व ज्ञान नहीं है। स्वयं, स्वयं में परिपूर्ण है। जैसे-लवण की डली खार रस से और मिश्री की डली मिष्ट रस से परिपूर्ण है, वैसे ही हर एक आत्मा परमानन्द से परिपूर्ण है। (४) वीर्य-जिस शक्ति के द्वारा अपने अनन्त गुणों का अनन्त काल तक भोग या उपभोग करते हुए खेद व थकावट न हो, निरन्तर सहज ही शांत रस में परिणमन हो, अपने भीतर किसी बाधा का प्रवेश न हो, ऐसा हर एक आत्मा अनन्त वीर्य का धनी है। पुद्गल में भी शक्ति है परन्तु आत्मा की

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