Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 18
________________ श्री कमलबत्तीसी जी श्री कमलबत्तीसी जी प्रश्न-आप कहते हैं, ममल स्वभाव में लीन रहो, सहज-सरल स्वभाव रखो, जिनेन्द्र देव ने जैसा वस्तु स्वरूप बताया है, उसका श्रद्धान करो, यह तो सब बात समझ में आती है परन्तु अभी तो नाना प्रकार के मिथ्या भाव चलते हैं, अशुद्ध पर्याय चल रही है, कर्मोदय संयोग है, कर्म बंध सत्ता में पड़े हैं, इनका क्या करें, जब यह सब तूफान चलता है तो आत्मा की तो सुरत ही नहीं रहती, ऐसे में क्या करें? सद्गुरू श्रीमद् जिन तारण स्वामी इसके समाधान में आगे गाथा कहते हैं गाथा-४ जिनयति मिथ्याभावं, अनित असत्य पर्जाव गलियं च । गलिय कुन्यान सुभाव, विलय कमान तिविह जोएना ॥ शब्दार्थ- (जिनय) जीतो, जीतते हैं (ति) तीन प्रकार के (मिथ्याभावं) मिथ्याभावों को (अनित) क्षणभंगुर (असत्य) झूठा, नाशवान (पर्जाव) पर्याय (गलिय) गल जाती है (च) और (गलियं) गल जाता है (कुन्यान सुभाव) कुज्ञान स्वभाव, झूठा विपरीत ज्ञान (विलयं) विला जाते हैं (कमान) कर्मों के समूह (तिविह) तीन प्रकार के (जोएना) योग-मन, वचन, काय का एकाग्र शांत होना। विशेषार्थ-जो भव्य जीव, तीनों मिथ्यात्व भाव को जीतते हैं और क्षण भंगुर भावों में भ्रमित भयभीत नहीं होते, उनकी कर्मोदय जनित विभाव रूप समस्त अनृत, असत्य पर्यायें गल जाती हैं। चैतन्य स्वरूप से भिन्न, उदय जनित परिणाम और कुज्ञान भाव भी गल जाता है। ज्ञानी, तीनों योगों की एकाग्रता कर निज स्वभाव में लीन होते हैं, जिससे कर्मों के समूह के समूह विला जाते हैं। यहां श्री जिन तारण स्वामी, कमलावती जी के प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि हे कमलावती ! इन तीन मिथ्याभावों को जीतो । तीन मिथ्याभावों का अभिप्राय-यह शरीर मैं हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इनका सबका कर्ता हूं। यह भाव अज्ञान दशा में चलते हैं। जब भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान रूप सम्यक्दर्शन हो गया तो अब इन मिथ्या भावों से क्षणभंगुर नाशवान पर्याय से भ्रमित भयभीत होने की क्या बात है? इन्हें जीतो। यहां प्रश्न आता है कि इन्हें कैसे जीतें? उसका समाधान करते हैं कि ज्ञान मार्ग में अपना आत्मबल, ज्ञानबल ही सहकारी होता है. इन भावों को जीतने का उपाय है कि भेदज्ञान-तत्व निर्णय पूर्वक वस्तु स्वरूप का सत्श्रद्धान करो और इन किसी भी भाव पर्यायादि से भयभीत मत रहो, इन्हें महत्व मत दो, इनकी परवाह न करो, इन्हें अच्छा-बुरा मत मानो। अपने ज्ञान स्वभाव में स्थिर रहो,तो यह भाव पर्याय अपने आप गल जाते हैं. विला जाते हैं. इनका कोई अस्तित्व सत्ता नहीं है। हम अपनी अज्ञानता से इनको महत्व देते हैं, डरते हैं. सत्ता मानते हैं तो यह पेरते हैं. भयभीत करते हैं. इनको जीतने का उपाय अपने ज्ञान भाव में निर्भय स्थित रहना है और त्रियोग की साधनापूर्वक जहां अपने ज्ञान स्वभाव में लीन हुए वहां सब कर्मादि कुज्ञान भाव भी गल जाते हैं, विला जाते हैं, सब कर्मों का क्षय हो जाता है। पर द्रव्य और पर्याय की वृत्ति अशुभ हो चाहे शुभ हो, पर वह आत्मा नहीं है। स्वरूप से अनुभव में आता हुआ ज्ञान ही आत्मा है। अपने ज्ञायक स्वभाव का विचार और बारम्बार अभ्यास से ज्ञान स्वभाव में स्थिरता और दृढ़ता आती है, इसी से यह कर्म, भाव-विभाव, पर्यायादि, गलते-विलाते, क्षय होते हैं। इनसे छूटने के लिए इन्हें जीतने के लिए पर भावों से भिन्न आत्मा को जानकर उसी का अभ्यास करना योग्य है। ज्ञान द्वारा अपने स्वरूप शक्ति को जानना, बार-बार चिन्तवन-मनन अभ्यास करने पर उसमें दृढ़ता आती है। शुद्धात्म तत्व की ओर ढलना अर्थात् उस रूप रहना ही विकल्प के अभाव होने की रीति है। उपयोग का झुकाव अंतर्मुख स्वभाव की ओर होने पर विकल्प छूट जाते हैं फिर यह कोई भी मिथ्याभाव, शल्य विकल्प होते ही नहीं हैं। पहले आत्म स्वभाव का श्रवण मनन कर उसे लक्ष्य में लिया हो, अनुभूति युत श्रद्धान हो तो उसमें अन्तर्मुख होने से यह सारे भाव, विकल्प, पर्याय कर्मादि जीते जाते हैं, अर्थात् ज्ञान स्वभाव में रहने पर यह सब गल जाते, विला जाते, क्षय हो जाते हैं। ज्ञातापने के अभ्यास से ज्ञातापना प्रगट होने पर कर्तापना छूटता है, विभाव अपना स्वभाव नहीं है इसलिए आत्मा विभाव में एकमेक नहीं हो जाता, आत्मा तो शुद्ध रहता है, मात्र अनादि कालीन मान्यता के कारण, पर ऐसे शरीरादि जड़ की क्रिया मैं करता हूँ, मेरा स्वरूप रागादि है, मैं सचमुच विभाव का कर्ता हूँ, इस प्रकार की मिथ्या भ्रमना हो रही है । अपने आत्म स्वरूप का सम्यक् बोध होने पर कर्तापना छूटता है। कर्तापना, अपनत्व, एकत्व, छूटना ही सब

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