Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ श्री कमलबत्तीसी जी शुद्ध जीव लक्ष्य में आता है। जैसे जो सम्पूर्ण वीतरागी होते हैं, वे ही सर्वज्ञ हो सकते हैं. वैसे ही जो सर्व प्रकार के रागादि से ज्ञायक की भिन्नता समझें वे ही सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा की पहिचान, अनुभव कर सकते हैं, निर्विकल्प दशा में यह ध्यान है, यह ध्येय है, ऐसे विकल्प नहीं रहते। यद्यपि ज्ञानी की सविकल्प दशा में भी दृष्टि तो परमात्म तत्व पर ही होती है तथापि पंच परमेष्ठी, ध्याता, ध्यान, ध्येय इत्यादि सम्बंधी विकल्प भी होते हैं परन्तु निर्विकल्प स्वानुभूति होने पर विकल्प जाल टूट जाता है, कोई शुभाशुभ विकल्प नहीं रहते, ऐसी उग्र निर्विकल्प दशा में ही मुक्ति है,परम शांति, परमानन्द है, यही मार्ग है। प्रश्न-रत्नत्रयमयी शुद्ध स्वरूप अरिहन्त पद को प्रगट करने के लिए क्या करना पड़ता है? सद्गुरू इसके समाधान में आगे गाथा कहते हैं - गाथा-१० तीअर्थ सुखं दिस्ट, पंचार्थ पंच न्यान परमिस्टी। पंचाचार सुचरन, संमत्तं सुख न्यान आचरनं ॥ शब्दार्थ- (तीअर्थ) रत्नत्रय मयी, द्रव्य गुण पर्याय, उत्पाद व्यय धौव्य, ॐकार हियंकार श्रियंकार स्वरूप (सुद्धं) शुद्ध स्वभाव (दिस्ट) देखो (पंचार्थ) पांच अर्थ-उत्पन्न अर्थ, हितकार अर्थ, सहकार अर्थ,जान (ज्ञान) अर्थ, पय (पद) अर्थ मयी, अक्षय स्वभाव (पंच न्यान) पांच ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान (परमिस्टी) पंच परमेष्ठी - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु (पंचाचार) पांच आचार - दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार (सुचरनं) सम्यक् आचरण करो (संमत्तं) सम्यक्त्व से (सुद्ध) शुद्ध (न्यान) ज्ञान (आचरनं) आचरण करो, लीन रहो, ग्रहण करो, धारण करो। विशेषार्थ- हे आत्मन् ! रत्नत्रय मयी, द्रव्य गुण पर्याय से शुद्ध, उत्पाद व्यय धौव्य युक्त, ॐकार ह्रियंकार श्रियंकार मयी, विशुद्ध चिदानन्द स्वरूप अपने शुद्ध स्वभाव को देखो, पांच अर्थ -उत्पन्न अर्थ, हितकार अर्थ, सहकार अर्थ, जान (ज्ञान) अर्थ, पय (पद) अर्थ मयी अक्षय स्वभाव का मनन करो। पांच ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान और केवलज्ञान मयी निज स्वभाव की साधना करो। पांच परमेष्ठी-अरिहंत, सिद्ध,आचार्य, उपाध्याय, साधु पद को धारण करो। पंचाचार-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, श्री कमलबत्तीसी जी चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार इन पंचाचारों को ग्रहण करो। पंचाचार का पालन करने वाला आचार्य होता है तथा सम्यक्त्व से शुद्ध, ज्ञानमयी चैतन्य स्वभाव में लीन रहो, इसी से अनन्त चतुष्टयमयी, केवलज्ञान स्वरूप अरिहन्त पद प्रगट होता है। जिस जीव को आगम,युक्ति,सद्गुरू देशना,भेदज्ञान या काललब्धि आदि से जैसे भी हो, निज शुखात्मानुभूति हो गई, जिसे शरीरादि से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप की अनुभूति हो गई और शान पूर्वक इस बात की दृढ़ प्रतीति, सत्बद्धान हो गया कि मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ यह शरीरावि मैं नहीं और यह मेरे नहीं, इस प्रकार आत्मानुभूति का निश्चय श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन की शुद्धि है और स्व पर के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान संशय, विभ्रम, विमोह से रहित सम्यग्ज्ञान है, वह शानी है। ऐसा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी, पर के एकत्व, अपनत्व, कर्तृत्व से रहित अपने सच्चिदानन्द घन स्वरूप की अनुभूति करता हुआ हमेशा, ज्ञायक ज्ञानानन्द में रहता है, इससे पूर्व कर्म बंधनों की निर्जरा होती है, पर्याय में शुद्धि आती है। ममल स्वभाव की साधना से, साधु पद से अरिहन्त, सिद्ध पद प्रगट होता है। सद्गुरू कहते हैं कि हे आत्मन् ! तू पर की ओर दृष्टि करके दीन हुआ, ललचाता फिरता है। तूने कभी अपनी निज निधि का दर्शन नहीं किया। तेरे भीतर तेरी ज्ञान कला ऐसी अपूर्व निधि है, जो तेरे सम्पूर्ण प्रयोजनों को साधने वाली है, वही तेरे लिए चिन्तामणि रत्न के समान शक्तिशाली वस्तु है. जिसकी शक्ति चिन्तन में नहीं आती पर स्वयं अनन्त शक्ति उसमें है । पंच ज्ञान मयी, परमेष्ठी पद का धारी, रत्नत्रय स्वरूप अपना शुद्ध आत्मा है, उसका आश्रय कर तेरे सर्व मनोरथ पूर्ण होंगे। उस आत्मानुभूति के उद्योत होने पर मिथ्यात्व का अंधकार स्वयं लुप्त हो जाता है। ज्ञान की किरणें सर्वत्र उद्योत करने लगती हैं। वस्तु का यथार्थ बोध हो जाता है,पर से राग-द्वेष दूर होकर समता रस का स्वयं उछाल होकर शुद्ध दृष्टि हो जाती है, ऐसा ज्ञानी अपनी आत्मानुभूति की लहरों में ही मगन रहता है। पराश्रय की दीनता दूर हो जाती है, मोक्ष पथ उसकी दृष्टि में सहज दीखता है। उसका मन संसार की समस्त वासनाओं से दूर हो जाता है और बंध मार्ग छूट जाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113