Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ श्री कमलबत्तीसी जी है। संसार से जिनकी दृष्टि हट गई है और समस्त कामनायें छूट गई हैं उनका जनरंजन राग भाव गल जाता है। ज्ञानी कलरंजन दोष से विमुक्त हो जाते हैं, शरीर से दृष्टि हटाकर निजात्म आराधना में रत रहते हैं वे साधक मन रंजन गारव का भी त्याग कर हमेशा अपने चिद्रूप धाम, जिन स्वभाव की साधना करते हैं। जब तक जीव के साथ शरीरादि कर्म संयोग हैं, संसार में है तब तक उसे निश्चय-व्यवहार पूर्वक साधना करनी पड़ती है, शुद्ध निश्चय नय निज शुद्धात्म स्वरूप साध्य है, यही इष्ट उपादेय है। इस साध्य की साधना का मार्ग निश्चय निज शुद्धात्मानुभूति सहित स्व-पर का यथार्थ निर्णय करते हुए अपने स्वरूप में लीन रहना, यही मुक्ति मार्ग है। इस पर चलने में अनादि अज्ञान जनित निमित्त नैमित्तिक संबंध जीव और कर्म बंधोदय बाधक बनते हैं उनका निराकरण करते, हटाते हुए अंतर शोधन करते हुए ही आगे बढ़ा जाता है। जीव के अज्ञान जनित मोह, राग, द्वेष भाव, कर्म बंध के कारण हैं, कर्म बंधोदय के निमित्त से जीव के मोह, राग, द्वेष भाव होते हैं, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। १. जनरंजन राग- यह राग भाव है- जनरंजन का मतलब पर जीव, संसार की तरफ दृष्टि होना और उनको खुश करना, प्रभावित करना, रंजायमान करना, उनके द्वारा अपनी प्रभावना प्रसिद्धि चाहना, इच्छा पूर्ति करना, इसके अंतर्गत-कुटुम्ब परिवार समाज, संसार सब आ जाता है। इनसे स्वार्थ संबंध रखना, कुछ चाहना, वह तो बंधन ही है। पर कुछ भी अपेक्षा रखना, यह राग भाव है, यही कर्म बंध का कारण है। २. कलरंजन दोष- यह दोष भाव है- कलरंजन का मतलब शरीर रंजायमान पना, शरीराशक्ति, सुखियापना, विषय सेवनादि काम भाव सब इसके अंतर्गत आ जाते हैं। यह सब दुष्प्रवृत्ति दोष भाव दुर्गति कराने वाले हैं। शरीर में एकत्वपना तो मिथ्यात्व है पर शरीर में अपनत्व लगाव होना यह दोष है। शरीर पुद्गल परमाणुओं का स्कंध मल, मूत्र, मांस, हड्डी का पिंड अशुचि है। इसका संयोग संबंध ही जीव का बंधन रूप संसार है, शरीर से आसक्ति का हटना ही वीतरागता है। ३. मनरंजन गारव-यह गारव अहं भाव है- मनरंजन का मतलब मन के चक्कर में चकराना, मन का काम संकल्प-विकल्प (आगे पीछे के भाव) श्री कमलबत्तीसी जी करना है। यह माया मोह से ग्रसित विचारों का प्रवाह है। इसमें रंजायमान होना, लगे रहना यही संसार है। मन-मोहनीय कर्म की पर्याय है । जब तक पर्याय दृष्टि है तब तक मिथ्यादृष्टि है। पर्याय दृष्टि ही गारव भाव, मद, मान को बढ़ाने वाली है। जब तक पर्याय पर दृष्टि है, उसका लक्ष्य है तब तक मोह भाव है। इससे छूटने पर ही स्वरूप रमणता होती है। ज्ञानी. इन तीनों को अज्ञानजनित विकारी भाव जानकर इधर से अपनी दृष्टि हटा लेते हैं। इनसे हट जाना, भिन्न हो जाना ही इनको छोड़ देना, त्याग करना है। ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। इनमें उलझे रहना लगे रहना ही अज्ञान जनित मोह-राग-द्वेष भाव है। इसी से इनका चक्र चलता है और उसमें फंसा जीव चार गति, चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता है पर कहीं तृप्त नहीं होता। शरीर, पदार्थ, व्यक्ति, परिस्थिति आदि के संयोगकाल में ही वियोग का अनुभव कर ले तो तत्काल, तत्व साक्षात्कार हो जाये। जीव स्वयं परमात्मा होने के कारण अमर तो है ही परन्तु नाशवान शरीरादि के साथ एकता मान लेने से उसे अमरता का अनुभव श्रद्धान नहीं होता, अपने को शरीरादि से सर्वथा पृथक् अनुभव करना ही उस अमरता के स्पष्ट अनुभव का सीधा उपाय है। जो चल रहा है,हो रहा है,जा रहा है, उस जाने वाले के साथ साधक स्वयं अपनी स्थिति मान लेता है, अर्थात् उसमें एकमेक हो जाता है, यही स्वरूप के अनुभव में मुख्य बाधा है। साधक को चाहिए कि वह अपनी परिवर्तनशील दशा में अपनी (स्वरूप की) स्थिति न माने और न देखे। अपने स्वरूप को ही देखे, स्वरूप तक कभी सृष्टि (कर्मादि) पहुंच नहीं सकती। वर्तमान स्थिति से लेकर निर्विकल्प स्थिति (साध. अरिहंत, सिद्ध दशा) तक अवस्था अर्थात् पर्याय है, जो कि परिवर्तन शील है। अपना सत्स्वरूप अवस्था (पर्याय) नहीं, अपितु अवस्थातीत और अवस्था (दशा) का प्रकाशक ज्ञाता है। परमात्मा में कभी परिवर्तन हुआ नहीं, होता नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं है अत: अपने परमात्म स्वरूप में नित्य निरन्तर रहना ही अध्यात्म ज्ञान है। ज्ञानी पुरूष अपने स्व रस से अर्थात् स्वभाव से ही सम्पूर्ण राग रस से दूर २६

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113