Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 17
________________ श्री कमलबत्तीसी जी करने पर रागादि विभाव भाव, ज्ञान रूपी चैतन्य दर्पण में प्रतिबिम्ब रूप हैं। ज्ञान वैराग्य की अचिन्त्य शक्ति द्वारा यथार्थ दृष्टि प्रगट करना यही पुरुषार्थ है। अनेक प्रकार के कर्म के उदय, सत्ता, अनुभाग तथा कर्मनिमित्तजन्य विकल्प आदि आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं। जैसे-स्वभाव से निर्मल स्फटिक रंगा नहीं गया है। वैसे ही स्वभाव से निर्मल आत्मा में क्रोध, मानादि दिखाई दें तथापि वास्तव में आत्म द्रव्य उनसे भिन्न है वस्तु स्वभाव में मलिनता नहीं है। अनादि से जीव और पुद्गल का एक क्षेत्रावगाह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होने के बाद भी आत्मा का एक प्रदेश भी पुद्गल अचेतन रूप नहीं हुआ और पुद्गल का एक परमाणु चेतन रूप नहीं हुआ, यह द्रव्य की स्वतंत्र वस्तु व्यवस्था है। जिसे यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट होती है, उसे दृष्टि के जोर में अकेला, शुद्ध चैतन्य ध्रुव तत्व ही भासता दिखाई देता है। शरीरादि कुछ भासित नहीं होता, भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ़ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा शरीर से भिन्न भासता है। अखण्ड त्रिकाली ज्ञान स्वभाव को ज्ञेय बनाकर इस आश्रय में एकाग्र हुआ ज्ञान परिणाम विभाव अंश से भिन्न रहता हुआ, विभाव को पर ज्ञेय की तरह जानता देखता है, यही भेदज्ञान है। साधक को एक ही समय में एक ही परिणाम में दोनों प्रकार का भिन्न अनुभव होता है। जीवों को ज्ञान और क्रिया के स्वरूप की खबर नहीं है, स्वयं ज्ञान और क्रिया दोनों करते हैं ऐसी भ्रमना, भ्रान्ति भरी हुई है। मुझे इतना आता है, मैं ऐसी साधना क्रियायें करता हूँ, इस प्रकार मिथ्या अभिमान में रहते हैं। निज शुद्धात्मानुभूति के बिना ज्ञान होता ही नहीं और आत्मा का स्वभाव रूप परिणमन ही उसकी क्रिया है। बाह्य जड़ पदार्थों का ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान, ज्ञान नहीं है और पौद्गलिक जड़ की क्रिया शरीरादि का परिणमन, यह आत्मा की क्रिया नहीं है। आत्मा से पर के जड़ के कार्य कभी नहीं होते, जो बाह्य ज्ञान और जड़ की क्रियाओं में अपना कर्तृत्व मानता है वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है । - सर्वोत्कृष्ट महिमा का भंडार चैतन्य देव, अनादि अनन्त परम पारिणामिक भाव में स्थित है जो पूरा निर्मल है ममल है। जिसमें कभी कर्म मलादि विकार हुये ही नहीं, जो परिपूर्ण है, परम निरपेक्ष है, ध्रुव है और त्रैकालिक परिपूर्ण सामर्थ्यमय है। जो परम सुख, परम शान्ति, १७ श्री कमलबत्तीसी जी परमानन्द का भंडार रत्नत्रय स्वरूप अनन्त चतुष्टयमयी ज्ञान स्वभावी अभेद एक परम पारिणामिक भाव रूप है। उसी का आश्रय करने, उसी में लीन रहने से सम्यक्दर्शन से लेकर मोक्ष तक की सर्व दशायें प्रगट होती हैं। आत्मा में सहज भाव से विद्यमान ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द इत्यादि अनन्त गुण भी यद्यपि पारिणामिक भाव रूप हैं तथापि वे चैतन्य द्रव्य के एक-एक अंश रूप होने के कारण उनका भेद रूप से अवलम्बन लेने पर निर्मलता शुद्ध दशा प्रगट नहीं होती इसीलिए परम पारिणामिक भाव रूप ममलह ममल स्वरूप अभेद एक शुद्ध चैतन्य ज्ञान मात्र अखण्ड परमात्म तत्व काही आश्रय करना, वहीं दृष्टि देना, उसी का ध्यान करना ही परमानन्द दशा मुक्ति सिद्धि की सम्पत्ति मिलना है। प्रश्न- जीव को ऐसी स्वानुभूति के लिए क्या करना चाहिये ? समाधान प्रथम स्वानुभूति हेतु ज्ञान स्वभावी आत्मा का जिस तरह भी हो, स्वाध्याय, सत्संग द्वारा दृढ़ निर्णय करना चाहिए, इसमें सहकारी तत्व ज्ञान प्रमुख है। भेदज्ञान पूर्वक द्रव्यों की स्वयं सिद्धि, सत्यता और स्वतंत्रता, द्रव्य, गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय, धौव्य, नव तत्वों का सत्य स्वरूप जानना, जीव और शरीर की क्रियाओं का भिन्न-भिन्न ज्ञान करना, पुण्य और धर्म के लक्षण भेद जानना, निश्चय और व्यवहार का यथार्थ ज्ञान करना और इन सबका निरन्तर अभ्यास करते हुए अपने शुद्ध चैतन्य शुद्धात्म तत्व, ममल स्वभाव में लीन रहना, ज्ञान स्वभाव में रहना ही इष्ट प्रयोजनीय है । पढ़ना-लिखना, सीखने के लिए बाहर से धन खर्च करे, व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदि करे तो भी पढ़ना, लिखना, सीखने में नहीं आता, अक्षर ज्ञान करके उसका अभ्यास करे तभी पढ़ना-लिखना सीखने में आता है। इसी तरह आत्म ज्ञान और आत्मानुभूति बाहर के किसी क्रिया, कर्म से नहीं होती । दया, दान, व्रत से शांति व धर्म नहीं मिलता, वह तो इन शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूं, यह शरीरादि मैं नहीं, ये मेरे नहीं हैं। ऐसा भेदज्ञान पूर्वक सम्यक् श्रद्धान ज्ञान करने पर ही होता है, इसी को धर्म कहते हैं। ऐसी प्रतीति के बिना शांति आनंद नहीं मिलता । - "पर पर्जय हो, दिष्टि न देई सो ममल सुभाए" पर और पर्याय पर दृष्टि न देना ही ममल स्वभाव है, यह स्थिति बनना, स्थायी रहना ही केवलज्ञान मुक्त, सिद्ध दशा प्रगटाने वाली है।

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