Book Title: Kalyankarak Author(s): Ugradityacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri Publisher: Govind Raoji Doshi Solapur View full book textPage 9
________________ (2) - चन्द्रमाको लगे हुए क्षय की चिकित्सा अश्विनौ देवोंने अपने चिकित्सासामर्थ्यसे की, इस का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है । च्यवनऋषीकी कथा पुनयौवनत्व प्राप्त करदेनेवाले योग का समर्थक है । ऋग्वेदकी अपेक्षा भी अथर्ववेद में प्रार्थना व सूक्तोंके बजाय मणिमंत्र औषधि आदि का ही विचार अधिक है । अथर्ववेद में वशीकरण विधान समंत्रक व निमंत्रकरूप से किया गया है । इसी प्रकार किसी किसी औषधि के संबंध में कौनसे रोगपर किस औषधि के साथ संयुक्त कर देना चाहिए, इस का उल्लेख जगह जगह पर मिलता है । औषधि गुण-धर्मका उगमस्थान यही मिलता है । भिन्न २ अवयवों के नाम अथर्ववेद में मिलते हैं । अथर्ववेद आयुर्वेद का मुख्य वेद गिना जाता है, अर्थात् आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। यजुर्वेद में यज्ञ-यागादिक की प्रक्रिया वर्णित है । उस में यज्ञीय पशुओं को प्राप्त कर उन २ विशिष्ट अवयवों के समंत्रक हवन का वर्णन किया गया है । यजुर्वेद ब्राह्मण व आरण्यकों में विशेषतः ऐतरेय ब्राह्मणों में शारीरिक संज्ञा बहुत से स्थानपर आगई है । वैदिकवाड्मय का प्रसार जिस प्रकार होता गया. उसी प्रकार भिन्न भिन्न विषयों का ग्रंथसंग्रह भी बढने लगा। इसी समय आयुर्वेद का स्वतंत्र ग्रंथ या संहिताशास्त्र का अग्निवेशादिकों ने निर्माण किया । जैनागमों का विशेषतः विस्तार इसी काल में हुआ एवं उन्होंने भी आयुर्वेद-संहिताका निर्माण इसी समय किया । कल्याणकारक ग्रंथ, उसकी भाषा, विषयवर्णनशैली, तत्वप्रणाली इत्यादि विचारों से वह वाग्भट के नंतर का ग्रंथ होगा यह अनुमान किया जासकता है । परन्तु अग्निवेश, जतुकर्ण, क्षारप्राणी, भेल, पाराशर, इन की संहितायें अत्यंत प्राचीन हैं | इनमें से अग्निवेशसंहिता को दृढबल व चरकने संस्कृत कर व बढाकर आज जगत् के सामने रखखा है । यह ग्रंथ आज चरकसंहिता के नाम से प्रसिद्ध है । चरकसंहिता की भाषा अनेक स्थानों में औपनिषदिक भाषासे मिलती जुलती है । इस चरक का काल इसवी सन् के पूर्व हजार से डेढ हजार वर्षपर्यंत होना चाहिये इस प्रकार विद्वानों का तर्क है । चरक की संहिता तत्कालीन वैद्यक का सुंदर नमूना है। चरकसंहिता में अग्निवेश का भाग कितना है, दृढबल का भाग कितना है और स्वतः चरक का अंश कितना है यह समझना कठिन है । १जैनाचार्यों के मतसे द्वादशांग शास्त्र में जो दृष्टिवाद नाम का जो बारहवां अंग है। उसके पांच भेदों में से एक भेद पूर्व ( पूर्वगत ) है। उसका भी चौदह भेद है। इन भेदों में जो प्राणावाद पूर्वशास्त्र है उसमें विस्तारके साथ अष्टांगायुर्वेदका कथन किया है। यही आयुर्वेद शास्त्रका मूलशास्त्र अथवा मूलवेद है। उसी वेद के अनुसार ही सभी आचायोंने आयुर्वेद शास्त्र का निर्माण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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