Book Title: Kalyankarak
Author(s): Ugradityacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govind Raoji Doshi Solapur

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Page 8
________________ श्री कल्याणकारक वैद्यक-ग्रंथ की प्रस्तावना. आयुर्वेद अर्थात् जीवनशास्त्रकी उत्पत्ति के संबंध में कोई निश्चित काल नहीं कहा जासकता है । कारण कि जहां से प्राणियों के जीवन का संबंध है वहींसे आयुर्वेद की भी आवश्यकता होती है। समाजके या प्राणिमात्र के धारण-पोषणके लिए इस शास्त्रकी परम आवश्यकता होनेसे चार आदमियोंने एकत्रित होकर जहां समाज बनाया यहां पर आयुर्वेदके स्थूल सिद्धांतों के संबंध में विचार-विनिमय होने लगते हैं। बिलकुल अशिक्षित दशा में पडा हुआ समाज भी अपने समाजके रोगियों की परिचर्या या चिकित्साकी व्यवस्था किसी हद तक करता है । प्रायशः इन समाजों में देवपूजा करने वाले या मंत्रतंत्र करनेवाले उपाध्याय ही चिकित्सा भी करता है। आज भी ऐसे अनेक अशिक्षित [ गांवडे ] समाज उपलब्ध है जिनकी चिकित्सा ये पुरोहित ही करते हैं । (इन सब बातों का सविस्तर उल्लेख स्पेन्सर कृत ' नीतिशास्त्र' व Nights of Toil नामक पुस्तकमें है ) इस अवस्थामें चिकित्साशास्त्रकी शास्त्रीयदृष्टिसे विशेष उन्नति नहीं हो पाती है । केवल चार आदमियों के अनुभव से, दो चार निश्चित बातों के आधार से चिकित्सा होती है व वही चिकित्सापद्धति एक चिकित्सकसे दूसरे चिकित्सक को मालुम होकर समाज में रूढ हो जाती है । समाज की जैसी जैसी उन्नति होती है उसी प्रकार अन्य शास्त्रों के समान चिकित्साशास्त्र या आयुर्वेदशास्त्र की भी उन्नति होती है । बुद्धिमान व प्रतिभाशाली वैद्य इस चिकित्सापरंपरामें अपने बुद्धिकौशल से कुछ विशेषताको उत्पन्न करते हैं । क्रमशः आयुर्वेद बढ़ता रहता है। साथ में आयुर्वेद शास्त्र के गूढतत्वों को निकालने व शोधन करने का कार्य सत्वबुद्धियुक्त संशोधक विद्वान् करते हैं । इस प्रकार बढते बढते यह विषय केवल श्रुति में न रहकर इनकी संहिता बनने लगती है । वैदिककाल के पूर्व भी ऐसी सुसंगत संहिताओं की उपलब्धि थी यह बात संहिता शब्दसे ही स्पष्ट होजाती है। वेद या आगमके कालमें भी आयुर्वेदका सुसंगत परिचय उपलब्ध था। ऋग्वेद इस भूमंडलका सबसे प्राचीन लिखित ग्रंथ माना जाता है। उसमें अनेक प्रकारकी शस्त्रक्रिया, नानाप्रकार की दिव्यऔषधि, मणि, रत्न व त्रिधातु आदि का उल्लेख मिलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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