Book Title: Kalpasutra
Author(s): Bhadrabahuswami, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur

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Page 366
________________ Give Sir", then he can either accept for himself or give as he pleases. २३६. वर्षावास में रहे हुए कितने ही निर्ग्रन्थों को प्रारम्भ में ही इस प्रकार कहा हया होता है कि, 'हे भदन्त ! तुम देना, हे भदन्त ! तुम ग्रहण करना' तो उन्हें इस प्रकार से दूसरों को देना पीर स्वयं को ग्रहण करना कल्पता है। २३७. वर्षावास में रहे हए श्रमणों और श्रमणियों को जो हृष्ट-पुष्ट हों, निरोग हों, बलिष्ठ शरीर वाले हों। उन्हें इन नौ रस-विकृतियों को पुनः पुनः खाना नहीं कल्पता है। जैसे-१. क्षीर-दूध, २. दही, ३. नवनीतमक्खन, ४. घी,५. तेल, ६.गुड़, ७. मधु, ८. मद्य और ६. मांस। २३८. वर्षावास में रहे हुए कितने ही साधुओं को प्रारम्भ में ही इस प्रकार कहा हुआ होता है कि, 'हे। भगवन् ! ग्लान (अस्वस्थ, बीमार) के लिये आवश्यकता है ? यदि वह कहे कि प्रयोजन है, तो उसके पश्चात् उस ग्लान-बीमार से पूछना चाहिए कि कितनी मात्रा में आवश्यकता है? उससे पूछकर उत्तर दे कि 'अस्वस्थ । व्यक्ति को इतने प्रमाण में (दूध, दही आदि की) आवश्यकता है। वह अस्वस्थ व्यक्ति जितने प्रमाण की आवश्यकता बतलावे 237. For monks and nuns of a strong physique, who are in good health and are free of disease, it is not proper to partake regularly of the following nine savoury stuffs which are contaminated by nature (rasa-vikrtayal) : milk, butter, ghee, oil, jaggery, honey, liquor and meat. 238. During, paryusana many monks and nuns are asked : "Is it (i.e.any of the above) required for the sick?" If the sick monk were to say "Yes, it is required". Then he should be asked "How much is required? In reply it would be said : "So much is needed for the sick". One should, then, accept, as alms, just the quantity that is needed. One should request for just the need कल्पसूत्र ३१६ *शास्त्रकार ने यहाँ सामान्य पाठ के रूप में विकृतिकारक नौ उत्तराध्ययन सूत्र अध्य. ६ गाथा ७०-७१ आदि-में मधु, मद्य पदार्थों की गणना देते हुए मधु, मद्य और मांस का उल्लेख किया और मांस को अप्रशस्त एवं महाविकृतिकारक मानते हुए इनके हो ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि, बिशेष पाठ के रूप में शास्त्रों- ग्रहण भक्षण का पूर्णरूपेण निषेध किया गया है जो जैन-परम्परा निशीथ० उद्दे० ३. सूत्र २८, निशीथ भाष्य गा० १५६५, ३१६६ सम्मत है। Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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