Book Title: Kalpasutra
Author(s): Bhadrabahuswami, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur

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Page 425
________________ Google विचार किया जायेगा । मुनि जिनविजयजी संग्रह की प्रति के अतिरिक्त प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, वम्बई की प्रति भी १४वीं शती की हो सकती है। एशियाटिक सोसाइटी, बम्बई के संग्रह में कल्पसूत्र की एक चित्रित प्रति है, जिसकी तिथि वि० सं०१४७२ (१४१५ ई०) है। मुनि जिनविजयजी वाली प्रति की तरह इसकी भी पृष्ठिका लाल है और सोने का यत्र-तत्र प्रयोग हुअा है । १४१५ ई० की दूसरी प्रति सेठ प्रानन्दजी कल्याणजी पेढीना ज्ञान भण्डार, लिंबडी में है। शैली की दृष्टि से १४२७ ई० की 'इण्डिया आफिस लाइब्रेरी, लंदन' वाली प्रति उल्लेखनीय है। इस में लाल एवं काली जमीन पर रौप्याक्षरों में कल्पसूत्र का पाठ लिखा हुआ है। तीर्थकरों के जीवन के दृश्य बड़े विस्तार से चित्रित किये गये हैं। मुख्य चित्र के हाशिये बड़े अलंकरण युक्त हैं। इस परम्परा का प्रारम्भ इस प्रति से होता है, जिसका पूर्ण विकसित रूप 'देवशानो पाडो भण्डार' वाली प्रति में देखने को मिलता है। _ हेमचन्द्राचार्य ज्ञान मन्दिर, पाटन, में कल्पसूत्र के कुछ पत्रे हैं जो कलात्मक दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय नहीं हैं। प्राचार्य जय सूरीश्वरजी के संग्रह की १४३२ ई० वाली प्रति में तीर्थंकरों के जीवन से सम्बद्ध इक्कीस चित्र हैं। १५वीं शती का उत्तरार्द्ध कल्पमत्र चित्रा का स्वर्णयुग था और इस काल की कूछ कृतियां अलंकरण की दृष्टि से अत्युत्तम एवं अंकन में अद्वितीय हैं। १४३६ ई० के मांडू कल्पसूत्र (राष्ट्रीय संग्रहालय) से ही इसकी झलक मिलने लगती है। इस स्वर्णाक्षरी प्रति की विषयवस्तु परम्परागत होते हुए भी वातावरण, दृश्य संयोजन एवं रंग-योजना में कलाकार ने अपनी कल्पना एवं कुशलता का परिचय दिया है। इस प्रति से यह भी ज्ञात होता है कि पश्चिमी भारतीय शैली की मुख्य धारा का प्रसार अब मालवा प्रादि अन्य क्षेत्रों में होने लगा था। इसी प्रकार की एक प्रति १४६५ ई० में जौनपुर (उ० प्र०) में हुसेन शाह शर्की के राज्य में बनी, जिसे हपिनी थाविका ने बनवाया था। पश्चिमी भारतीय शैली में बनी इस प्रति में प्राकृतियां नुकीली हैं और परली प्रांख भी विद्यमान है। पाठ स्वर्णाक्षरों में लाल जमीन पर लिखा है । हाशियों में फूल पत्तियों के संयोजन से बने अलं For Private & Personal Use Only ( iv ) Jain Eduction Internations www.jainelibrary.org

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