________________
(ii)
Jain Education International
कहना कठिन है कि शास्त्रदान की इस परम्परा का प्रारम्भ कब से हुना, किन्तु निश्चय ही उसकी शुरुआत पाटलिपुत्र अधिवेशन के बाद हुई। इस सभा में जैनमत की मौखिक श्रुत परम्परा को लिखित रूप देने का निर्णय किया गया और इसी का अगला कदम था - ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना । शास्त्रदान के लिये किसी पुस्तक विशेष का विधान नहीं था, किन्तु महावीर तथा अन्य तीर्थंकरों के जीवन से सम्बद्ध होने के कारण इस कार्य के लिये कल्पसूत्र विशेष लोकप्रिय रहा । उपदेश तरंगिरणी में कहा गया है कि गुजरात के राजा कुमारपाल (११४३-७४) ने इक्कीस शास्त्र भण्डारों की स्थापना की और प्रत्येक को कल्पसूत्र की एक-एक स्वर्णाक्षरी प्रति भेंट की ।
चित्रण माध्यम के श्राधार पर कल्पसूत्र के चित्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - तालपत्र अथवा भोजपत्र पर बने चित्र एवं कागज पर कागज के आने से पहले भारत में धार्मिक ग्रन्थों के चित्रण के लिये तालपत्र ही लोकप्रिय था। गिलगित (काश्मीर) से प्राप्त बौद्ध हस्तलिखित पोथियों में कुछ तालपत्र पर हैं पर अन्य भोजपत्र पर इन पोथियों की पटलियों पर चित्र बने हैं। इसी प्रकार मध्यकालीन पूर्वी भारत, बंगाल, बिहार एवं नेपाल में बौद्ध ग्रन्थों का अंकन तालपत्रों पर हुया । ये पोथियां उस क्षेत्र की कलात्मक गतिविधियों से हमें अवगत कराती हैं।
तालपत्र :
सचित्र कल्पसूत्र तथा कालक-कथा की प्राचीनतम ज्ञात प्रति संघवी ना पाडा ना भण्डार, पाटन में है, जिसकी तिथि १२७८ ई० है । इसमें कुल दो चित्र हैं - एक में दो जैन साध्वियां और दूसरे में दो श्राविकाएं बनी हैं । इसी संग्रह में कल्पसूत्र एवं कालक कथा की दूसरी प्रति भी है, जिसकी तिथि १२७६ ई० है । ये दोनों ही तालपत्र पर हैं । इस पोथी के पांचों चित्र जैन देवी-देवताओं के यथा ब्रह्मशान्ति यक्ष एवं लक्ष्मी देवी के अंकनमात्र हैं। कालक्रमानुसार इसके बाद उझमफोई धर्मशाला, ग्रहमदाबाद में संग्रहित कल्पसूत्र एवं कालकाचार्य कथा आती है, जिसमें तालपत्र पर छः चित्र बने हैं। संकरे पत्रों पर चार पंक्तियां लिखी गई हैं, जो दो खण्डों में विभाजित हैं, उनमें से दूसरा हिस्सा एक चौकोर खाने से पुनः दो हिस्सों में बंट जाता है और इसी चौकोरखाने में महावीर के
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org